गया था। वह दौर गया, फ़ारसी गई, पर कहावत अभी भी बाकी है; 'हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या।' ताज़ा उदाहरण देखें तो अंग्रेज़ी को सारे ज्ञान का, विवेक का, भंडार मान लिया गया, माध्यम मान लिया गया। वो भाषा है और सब चीजें उसमें उपलब्ध हों यह आग्रह नहीं रहना चाहिए। जो जिस भाषा में लिख सकता हो उसे उसमें लिखना चाहिए। उसी में अच्छे से लिख सकता है। तो एक कारण तो यह है कि मुझे अंग्रेज़ी में लिखने का अभ्यास नहीं था। इसलिए हिंदी में लिखा। लेकिन कभी यह सवाल इस तरह से नहीं उठता कि आपने अंग्रेज़ी में क्यों लिखा? अंग्रेज़ी में लिखने वाले से यह सवाल प्रायः नहीं पूछा जाता। (आपके लिए नहीं कह रहा मैं) अंग्रेज़ी लिखने वाले अपने लेखक या लेखिका से यह नहीं पूछते की आपने हिंदी में क्यों नहीं लिखा। हम यह मानते हैं कि यह तो उसका कर्तव्य है जो उसने पूरा किया। हिंदी के साथ ऐसा क्यों हो जाता है इसलिए कि एक काल खंड में एक भाषा का झंडा लग जाता है। कोई अच्छा काम करना है, तो वह अंग्रेज़ी में ही क्यों होना चाहिए? अपने समाज की मुख्य भाषा अगर हिंदी है जिसमें लोग ज्ञान का, विद्या का संचय करते रहे तो आपको धूल हटाते समय भी उसी भाषा में वापस करना होगा। अंग्रेज़ी में लिखने से निश्चित तौर पर जो नीति निर्धारक हैं, आज जो अंग्रेज़ी में काम करते हैं, उन तक ये बात पहुंच सकती है लेकिन उनके निर्णय लेने से ज़्यादा अच्छा होगा कि जिस समाज मे से यह काम गायब हुआ है उस समाज की स्मृति में उसे सम्मान से फिर से लौटाया जाए। उसकी कोशिश अगर करनी है तो वो आपको राजस्थानी में करनी पड़ेगी। वो हिंदी में करनी पड़ेगी। वो मराठी में करनी पड़ेगी। वो गुजराती में करनी पड़ेगी। और इन दोनों किताबों के साथ यह बहुत अच्छी बात हुई कि धीरे-धीरे इनको अलग-अलग भाषाओं के पाठकों ने उठाया है। अपने-अपने इलाके में अपनी भाषा में इस पर टिप्पणियां की हैं, अनुवाद किए है। मैं ऐसा मानता हूं कि अगर हमने इस
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