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पर्यावरण का पाठ


बारह मास। एकदम से जैसे दिमाग में बाकी सब कौंध गया। अपनी सब जानकारी विधिवत कहीं एक खूटी पर टांग सकें वो खूटी नहीं मिली थी तब तक। और वह एक ही अच्छे मित्र से मिल गई।

असल में पिछले दो सौ साल से सारे विचार का केंद्र ही अंग्रेज़ी या पश्चिम माना गया है। इसलिए हमारा पर्यावरण भी इसी तरह का हो गया। हमारे पर्यावरण की बहस भी वही हो गई; जो उनकी बहस है वह हमारी है। मैं अक्सर यह तीन-चार उदाहरण देता हूं। एक दौर में सोशल फ़ॉरेस्ट्री का काम आया। पर्यावरण की चिंता में ऊंघ रहे हम लोग भी 'सामाजिक वानिकी' में चले गए। बिना यह सोचे समझे कि यह सामाजिक वानिकी क्या चीज़ है यानी कि उससे पहले जो अंग्रेजों की फ़ॉरेस्ट्री थी उसको कभी हमने असामाजिक वानिकी कहा होता तो उसका सामाजिक संस्करण ढूंढ़ते। पर यह उनकी समस्या नहीं थी क्योंकि उन्होंने कभी जंगल लोगों के माने ही नहीं थे। यानी क्लास और मास में बंटे हुए समाज और वर्ण में बंटे समाज में बहुत फर्क होता है। मरुभूमि में छोटी-सी-छोटी मानी गई जात का भी झंडा ऊंचा रह सकता था राजा के आगे। पानी का अच्छा काम करने वाले लोग मेघवाल भी रहे हैं और पालीवाल भी। एक ब्राह्मण है और एक जिनको आज अनुसूचित कहा जाता है-दोनों को सिविल इंजीनियर का दर्जा था। ये नहीं है कि मेघवाल इस काम को हाथ नहीं लगा सकता था या पालीवाल इस काम को भला क्यों हाथ लगाए। महाराष्ट्र में हमने किस्से सुने कि कोई एक चितपावन ब्राह्मण तालाब खोद रहे हैं तो दूसरे ब्राह्मणों ने आकर उनका विरोध किया है क्योंकि बाद के दौर में यह आने लगा था कि हाथ का काम कुछ घटिया है। ब्राह्मण नहीं करता है ऐसे काम। कभी कुछ अच्छा दौर आता है। कभी कुछ फिसल जाते हैं कभी संभलते हैं।

मैं यह मानता हूं कि किसी भी इलाके की जो समस्याएं हैं, वो उसकी

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