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पर्यावरण का पाठ


वहां की भाषा में आपको उस तरह की ध्वनि गूंजती मिलेगी। जहां मरुभूमि का विस्तार है वहां उस तरह की जीवन-शैली बनेगी। भाषा और वहां का पर्यावरण एक दूसरे से अविछिन्न है। उनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। अब उसमें अपने को अगर कुछ गिरावट दिखती है तो वह कैसे आई उसे समझना पड़ेगा। उस गिरावट का एक बड़ा कारण यह है कि जो समाज उस भाषा का व्यवहार करता था, इस्तेमाल करता था, हमने उस समाज को भुला दिया है। उसको हमने साक्षरता का विषय मान लिया है, प्रशिक्षण का विषय मान लिया है, ढोर गंवार वाला एक भाव आ गया कि इनको कुछ-न-कुछ सिखाए बिना हम देश को संभाल नहीं पाएंगे। उसमें मुझे लगता है कि नए शास्त्र की पूरी गुंजाइश है। लेकिन उस शास्त्र का जो मुख्य आधार है वह उस समाज को उसकी खोई प्रतिष्ठा वापस करने का होगा। जैसे चीरहरण के किस्से हैं न, उस तरह से हमने अपने समाज की प्रतिष्ठा हरण का काम किया है। सत्ता हरण का काम किया है। संपत्तिहरण का काम किया है, अधिकारहरण किया है। तो ऐसे सब शास्त्रों की कसौटी यह होगी कि हम उस समाज को कितना प्रेम करते हैं; उसको उसकी इज़्ज़त वापस करते हैं कि नहीं। एक बार यह कोई करे तो आप उसको फिर मुंशी की भूमिका कहें, रचयिता की भूमिका कहें तो भी चलेगा। समाज अपना काम कर लेगा उसमें से।

आधुनिक चिंतन के अध्ययन से हम यह जानते हैं कि प्रकृति और मानव के संबंध को मोटे तौर पर पौर्वात्य और पाश्चात्य जीवन दृष्टि के बुनियादी फ़र्क से भी समझा जा सकता। पौर्वात्य दृष्टि का आग्रह प्रकृति से अहिंसक साझे का नाता बनाता है जबकि आधुनिक पश्चिम इसे मात्र उपभोग की वस्तु मानते हुए इसका अनियंत्रित व हिंसा की हद तक जाता शोषण करता है:

1. इस प्रकाश में संस्कृति और पर्यावरण के अंर्तसंबंध व स्वस्थ

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