विकास की प्रक्रिया को समझने के लिए आप किस दृष्टि की
वकालत करेंगे और क्यों? और इसका किस तरह का प्रारूप
प्रस्तावित करेंगे?
2. असल में अगर हम 'पर्यावरण' की आंख से मानवीय विकास और संस्कृति को परिभाषित करने का उपक्रम करें तो आपकी नज़र में इसके क्या और किस तरह के मापदंड हो सकते
यह मेरी सीमा है कि मैंने दुनिया को पूरब और पश्चिम में बांट कर नहीं देखा। मुझे वह मौका ही नहीं मिला। मैंने जब होश संभाला तो पूर्व ही ज़्यादा समझा। उसी में पला बढ़ा। मुझे यह नहीं मालूम कि यह पूर्व कहलाता था और वह पाश्चात्य है। वह खिड़की तो खुली ही नहीं तो हमें तुलना करने का मौका ही नहीं मिला। जो अपनी व्यवस्था मानी जा सकती है, उसी में थोड़ी बहुत गुंजाइश दिखी हमको काम करने की। पहले हमने उसी को समझा और बाद में हमको थोड़ी बहुत इस दूसरी व्यवस्था का पता चला।
विकास की आधुनिक प्रक्रिया में हम रोज़ कुछ नया सोचते करते हैं। उसके बाद जब उसकी ठोकर लगती है तो उसको बदल देते हैं। यह एक स्वस्थ चिंतन नहीं है। तो रोज़ बिना सोचे प्रयोग करने का उदाहरण हुआ कि यह करके देखते है इसमें फंस गए तो फिर वह करेंगे। आज ट्यूबवैल लगा दिए। सारा पानी उलीच दिया। फिर संकट आया तो ट्यूबवैल पर प्रतिबंध तक की बात चल पड़ी। लेकिन दूसरी तरफ़ हमारा पूर्व वाला समाज है जो ऐसा सोचता है कि पानी को ज़रूरत से ज़्यादा उलीचना नहीं है। गति का अंतर है। हमारे यहां मध्यम और मंथर गति है और उन लोगों की गति बड़ी तेज़ है। कोई कहेगा कि यह मजबूरी में है। मैं ऐसा मानता हूं कि यह सोची-समझी भी हो सकती है। राजस्थान में अगर जैसलमेर
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