में भी एक नम्रता ही होती है। लंबे समय तक तो बताती भी नहीं हैं
नदियां। हमें लगेगा की नदी गंदी हो रही है। फिर एकाध बार मछलियां
मर गईं तो उसकी खबर छप जाएगी चिंता हो जाएगी। बयान हो जाएंगे।
लेकिन ऐसी स्थिति हो जाए कि उस समाज को पीने का पानी न मिले।
पंजाब हरियाणा में एक बहुत बड़ी समस्या आ रही है। वहां भूजल
नाइट्रेट ज़्यादा है। अब उस पानी को पीने लायक बनाने के लिए कुछ
करोड़ रुपए तो दुबारा ख़र्च करने पड़ेंगे। दुगुनी ऊर्जा लगानी पड़ेगी।
सही भाषा में कहें तो दुगुनी बेवकूफ़ी होगी। एक बार दिखावटी तौर
पर दो-चार गांवों में इसे साफ़ करने के यंत्र लग जाएंगे। लेकिन पूरे
समाज की समस्या इसमें से हल नहीं होने वाली है। पर्यावरण की यह
आंख बार-बार चेतावनी देती है कि तुम जिसको विकास मानते हो, हम
उसको विकास नहीं मानते। इसलिए बार-बार प्रकृति गुहार लगा रही है,
प्रेम से समझा रही है और एक स्थिति में थोड़ा गुस्सा भी दिखा रही
है, चपत मार रही है, अकाल के रूप में, बाढ़ के रूप में, किसी बड़ी
बीमारी के रूप में।
इसी तरह अगर हम समाज की आंख से भी देखें तो एक लंबे दौर से हम लोग अपनी सब तरह की सामाजिक बातचीतों में बहुत सारे टुकड़े काट रहे हैं। उसमें मानवीय विकास एक शब्द होता है, संस्कृति एक शब्द होता है, पर्यावरण एक शब्द होता है, आर्थिक विकास एक हो जाता, शैक्षणिक विकास एक हो जाता है। मुझे लगता है कि हमारे समाज का स्वभाव इतने सारे टुकड़ों में एक साथ सोचने का नहीं था। दो शब्द हिंदी में बहुत मिलते-जुलते हैं-एक है आंख और दूसरा है पांख। समाज अपनी आंख से भी देखता था और पांख से अपने आपको ऊपर उठाकर एक विहंगम दृश्य भी लेता था-अपने समाज का। ऐसा नहीं होगा कि किसी इलाके का आर्थिक विकास अच्छा हो लेकिन पानी का काम छोड़ दिया
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