तो यह सब बहुत बारीकी से अध्ययन किया था। इसलिए मैं मानता हूं
कि पर्यावरण की आंख में सब कुछ आता था।
एक तरह से समूची बीसी सदी को प्रौद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास की गाथा की तरह भी पढ़ा जा सकता है। इस गाथा का लेखा-जोखा अपने उजले पक्षों को जिस तरह रेखांकित करता है उसमें हमारे समय की मुख्यधारा अक्सर यह अनदेखा कर देती है कि इसका जो अंधेरा पक्ष है वह विकरालता लेते हुए इसके 'उजले' को ख़त्म भी कर सकता है। मेरा प्रश्न इस उजले-अंधेरे को लेकर है:
1. हमारे समय में विकास और प्रौद्योगिकी के संबंध व दिशा को लेकर आपकी धारणा क्या है?
2. खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर माने जाने वाले लोग विदेशी पूंजी व टैक्नोलॉजी के आयात की पुरजोर वकालत करते हुए यह दलील पेश करते हैं कि विकास कार्यक्रमों को अंजाम देने के लिए बड़े पैमाने पर न केवल पूंजी बल्कि उन्नत टैक्नोलॉजी की भी ज़रूरत है। इस व इन तरह की नीतियों का पर्यावरण पर क्या प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव पड़ेगा?
पर्यावरण का थोड़ा बहुत काम हम लोगों ने जो 10-20 साल में समझा और किया है उसमें हमें भाषा का दारिद्रय सबसे ज़्यादा दिखा है। पर्यावरण जितना बिगड़ा है, उतनी भाषा भी बिगड़ी है। इसलिए मैं सबसे पहले विकास वाले मामले को लूंगा।
समुद्र तट, बर्फीले इलाके, पहाड़ी इलाके, मैदानी इलाके, तेज़ वर्षा वाले, कम वर्षा वाले, मरु प्रदेश इन सबमें समाज ने अपने कुछ 200-500 साल के अनुभव से कुछ ख़ास तरीके जीवन जीने के अपनाए हैं। उनको आप वहां की रीति कहिए, वहां की संस्कृति कहिए वह एक आकार लेकर
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