एक पंजाब बनाया, एक भाखड़ा बनाया। अगर इतना ही बनाने लायक
है यह तो मध्यप्रदेश, राजस्थान सबको हरितक्रांति का क्यों नहीं वाहक बना
देते? ख़त्म करो इस झगड़े को। हमें तो कोई आपत्ति नहीं है लेकिन पता
चलता है कि पंजाब में भी जो हरा रंग किया उसमें हरे रंग के पीछे काला
ब्रश चलता ही चला आ रहा है। उसको मिटा रहा है लगातार। उसको
हर बार ढक कर छिपाने की कोशिश कर रहे हैं हर साल। दो साल-चार
साल ढक सकते हैं। इससे ज़्यादा नहीं ढक पाएंगे। भदरंग बार-बार
उभरेगा। आपको शायद याद हो कि साल पहले पंजाब में थोड़ी अति
वृष्टि हुई थी और भयंकर बाढ़ आ गई थी। अब ये लोग ऐसा मानते हैं
कि बड़े बांधों से बाढ़ रुकनी चाहिए, अकाल से बचना चाहिए। तो
पंजाब-हरियाणा में अकाल कभी नहीं आएगा, बहुत अच्छी बात है, बाढ़
भी नहीं आनी चाहिए। पर बाढ़ आई और उसमें छह महीने तक बहुत सारे
हिस्सों में पानी फैला तो सिमटा ही नहीं। 6-7 माह रोहतक वगैरह इलाकों
में, पटियाला में खेती योग्य हुआ ही नहीं खेत। एक फ़सल तो बाढ़ में
डूबी और अगली फसल जब ले सकते थे तब तक उसमें कीचड़ था।
एक साल की दोनों फसलों को खो दिया। यह कोई विकास का रास्ता,
कोई मापदंड नहीं। इसका मतलब है हमने बहुत आगे तक देखा ही नहीं।
जो छोटी-मोटी चीजें हमारे सामने आ रही हैं हम उनको एक तरह से
विकास और विज्ञान में अंधविश्वास रखते हुए पूरी 'श्रद्धा' से अपना रहे
हैं। इस श्रद्धा के कारण पानी की कमी आएगी तो हैंडपंप लगाते चले
जाएंगे। नलकूप खोदते चले जाएंगे। लेकिन अब हरेक नलकूप ज़ोर-ज़ोर
से चिल्ला कर कह रहा है कि नीचे पानी नहीं है। मैं तुमको पानी नहीं
दे सकता।
नई प्रौद्योगिकी ज़रूर अपनाओ। नलकूप लगाओ लेकिन वहां के चार पुराने तालाबों को दुरुस्त रख के अपनाओगे तो नलकूप ज़्यादा दिनों तक
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