चलेगा। जैसलमेर में इस समय जगह-जगह नलकूप लगे हैं, क्योंकि
सरस्वती का पानी मिल गया है। प्रकृति के लंबे कैलेंडर में पन्ने अपने
से ज़्यादा हैं। अपने तो साल भर के बारह पन्ने और एक जीवन के मान
लीजिए 100 पन्ने हैं, 200 पन्ने हैं, 400 पन्ने हैं। प्रकृति के पंचांग में कुछ
करोड़ पन्ने हैं। इन पन्नों में कहीं लिखा है कि एक भरी-पूरी नदी थी।
फिर वह सूख गई। वहां एक नदी थी और वो आज गायब है तो नलकूप
हमारे तो बहुत ही मामूली छलनी बराबर छेद कर रहे हैं। उनको शाश्वत
मान बैठना, उन पर भरोसा करना बड़ी मूर्खता है। जो इस समय के सबसे
विद्वान लोग हैं वे इस मूर्खता को न देख पाएं तो वे विद्वान कैसे माने
जाएंगे!
अपनी भाषा में जो भी नया शब्द आता है उसको कुछ समय तक उलट-पुलटकर देखना चाहिए। फ़िलहाल हम लोग बिना सोचे समझे शब्दों को अपनाते जा रहे हैं। खुली अर्थव्यवस्था भी एक शब्द है। अब काम में लाना पड़ेगा अपने को आपस की बातचीत में लेकिन उस पर अच्छे लोगों को सोचना चाहिए। अर्थव्यवस्था खुली है या बंद है इस सब की कोई परिभाषा तय नहीं हो सकती। इस समय कुल मिलाकर बड़ी परिभाषा यह है कि वे चाहे जैसा सामान बनाएं, यहां वह बिक सके। यह खुली अर्थव्यवस्था मानी गई, ज़रूरी नहीं कि अच्छा सामान बनाएं और ये भी कि हमारा अच्छा सामान वे अपने यहां नहीं लेंगे। इस अर्थव्यवस्था में बहुत आदान-प्रदान भी नहीं है। अभी एक तरफ़ा ज़्यादा है। उनका सब कचरा हमें स्वीकार करना पड़ेगा। उसमें कोका कोला, पेप्सी, कुछ भी हो सकता है। लेकिन ज़रूरी नहीं है कि यहां की कोई चीज़ भी वहां जाए। यहां से जाएगी तो उनकी शर्तों पर। वहां से आएगी तो भी उनकी शर्तों पर। तो यह चित भी मेरी पट भी मेरी है और तो और उछालने वाले को कहते बंटा तो बंटा मेरे बाप का। दोनों में आपको कुछ नहीं मिलने वाला
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