सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पर्यावरण का पाठ


है। चित आएगी तो मेरी जीत और पट आएगा तो मैं जीता ही और यह सिक्का तो मेरे पिताजी का है, यह तो मैं लेकर जाऊंगा ही। नहीं तो कम से कम हमें अपना बंटा ही वापस मिल जाता। ऐसी अर्थव्यवस्था में यह सब जो कहा जाता है कि विदेशी पूंजी और टेक्नोलॉजी आयात करने से हमारी बहुत सारी समस्याएं हल हो जाएंगी तो सबसे पहले तो हमें लोगों से बड़ी विनम्रता से पूछना चाहिए कि इस पूंजी में जिसको हम विदेशी पूंजी कहते है, उससे जहां से वह आ रही है उनकी अपनी पूंजी है और अपनी टेक्नोलॉजी है, उससे आपने अपनी कौन-कौन सी समस्याएं हल कर ली? वह तो कम-से-कम हमको दिखा दीजिए। फिर हम देख लेते हैं कि हमारे किस काम की है। ऐसा खुलापन नहीं है। उस पैसे से हल करने की दिशा उनको मिल गई हो तो यहां भी वह स्वागत योग्य है। विदेशी स्वावलंबन की बात थोड़े समय के लिए भूल सकते हैं। कुछ आदान-प्रदान भी समाजों में हो सकता है कि भाई तुम अपना कोई धेला दे दो, हमारे काम आ जाएगा। लेकिन हम उनसे 90 प्रतिशत सहायता लेकर अपने देश को कर्ज में डुबो दें और उसको भी वापस न कर पाएं और जिस कारण से कर्ज लिया गया है वह कारण न दिखे। यानी जो अपने यहां चारवाक का पुराना प्रसिद्ध वाक्य है ऋणम् कृत्वा घृतम पिबेत । ऋण लेकर घी पिओ। घी तो पियो कम से कम ऋण ले कर। घी भी न पिएं या डालडा पी लें या कि घटिया तेल मिले तो बिल्कुल फायदा नहीं है। इतना तो अपने को ख़ातिर करने लायक इंतजाम करना चाहिए। अभी मुझे नहीं दिखता कि इसकी कोई हमने अच्छी समझ बनाई है।

समाज भी कभी दूध से जल जाता है और तब छाछ भी फूंक-फूंक के पीता है। ठोकर खाता है, सबक लेता है और फिर आगे बढ़ता है। उसकी स्मृति में यह सब जमा होता जाता है। पर जब हम बाहर से कोई चीज़ तकनीक अपनाते हैं तो उसमें यह पुराना अनुभव संचित नहीं मिलता।

191