हम गर्म दूध को छाछ मानकर बिना फूंके पी लेते हैं। मछली उद्योग का
उदाहरण हमारे सामने हैं। देश के समुद्र तटीय भाग इस समय घोर कष्ट
में हैं। वहां के मछुआरे कई बार दिल्ली की सड़कों पर आए हैं। मछुआरों
को दिल्ली में सड़कों पर आने की क्या ज़रूरत है? जो समुद्र की छाती
पर खेलते हैं, सड़कों की छाती कहां उनके मतलब की है। लेकिन उनके
भीतर क्रोध है; दुख है इसलिए उनको आना पड़ता है। मछली उनके जीवन
का आधार है। मछली उनके लिए केवल जीवन नहीं है वह उनकी संस्कृति
है। उसने उन्हें पूरा बनाया है। मछुआरों का एक अलिखित नियम होता
है। पूरे देश में यह चलता था कि वर्ष में चार महीने वे नदी में, समुद्र
में उतरते नहीं थे। चौमासा में मछलियां अंडे देती हैं, अपनी अगली संतति
तैयार करेंगी तो उसको पलने-बढ़ने दो। दूसरा नियम मछुआरों के जाल
का है। उसमें जो जाली बनेगी उसका आकार एक पक्का होगा; तालाब
में उसका अलग आकार होगा, नदी में अलग होगा। जिसको जो पसंद
आ गया, उसने वैसा बना लिया ऐसा नहीं है। जाली बिल्कुल तय है। और
वह वहां की मछली की बढ़त देखकर तय होती है। किस इलाके में
कौन-सी मछली की प्रजाति सबसे ज़्यादा पाई जाती है वह चार महीने में
छह महीने में निकालने योग्य हो गई तो वह इसमें आ जाए। बाकी उसमें
से बाहर निकल जाएं। पर जब नई पूंजी और नई तकनीक आई तो ट्रालर
नाम की एक चीज़ जुड़ गई। मशीनी नौकाओं के पीछे मच्छरदानी जैसा
पतला जाल लगा दिया। मोटर बोट आगे बढ़ेगी और उसमें जो पीछे आता
जाएगा वह सब समेट लेगा। फिर बोट पर उसको खोलकर गिराया जाता
है, उसमें से जो उनके काम की चीज़ है वो छांट कर अलग कर के बाकी
वहां पर तड़प कर मर जाने देते हैं। फिर उन्हें वापस समुद्र में फेंक देते
हैं। वे समुद्र को प्रदूषित करेंगी।
सारे तटीय इलाकों में मछली की कमी हुई है। यह पिछले 10 साल
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