के विकास के कारण हुई है। अधिक खपत के कारण नहीं हुई। अधिक
मारने के कारण हुई है। ज़रूरत नहीं है फिर भी मारकर ले गए। अब
वहां के मछुवारे सड़कों पर हैं। इन मशीनी नावों का विरोध कर रहे हैं।
उसी तरह आकाश के साथ हुआ, हवा के साथ हुआ कि जितनी हो सकें हमको चिमनियां ठोकते चले जाना है। वे विकास की नई पताकाएं मानी गई हैं। धुआं न दिखे, मोटर गाड़ियां न हों तो हमें लगेगा कि यह देश या यह शहर विकसित नहीं है। और उसके बाद हम उसे भोग रहे हैं। अब रोज़ विज्ञापन छपते हैं कि दिल्ली में हवा ख़राब है कि यह ख़राब है तो वह ख़राब है। जिस नीले आसमान को महान दादा-दादियों ने, माता-पिताओं ने बुरी तरह से काला कर दिया है, अब हम उनके बच्चों से उम्मीद कर रहे हैं कि वे दीपावली पर पटाखें नहीं फोड़ें और इसे ठीक कर दें!
पिछले दशकों में पारिस्थिति की-विज्ञान के महत्व को लेकर एक तरफ़ तो हमारी जागरूकता में उल्लेखनीय इज़ाफ़ा हुआ है और हम पर्यावरण-संबंधी समस्याओं के प्रति खासे चौकन्ने भी बावजूद इसके समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती और गहरी होती जा रही हैं, ऐसे में कुछ बरस पहले आपने जल-प्रबंधन के क्षेत्र में लोक समाजों में व्याप्त प्राचीन प्रविधियों की ओर ध्यानाकर्षण करते हुए सरकार व समाज को सचेत किया था कि यदि हमने इन स्वदेशी तकनीकी प्रणालियों को पुनर्नवा नहीं किया तो हमें भविष्य में भयानक परिणामों का सामना करना होगाः
1. इन समस्याओं से उबरने के लिए राज्य और समाज की भूमिका क्या होनी चाहिए?
2. क्या आपको यह नहीं लगता कि वर्तमान समय में पर्यावरण समस्याओं को सिर्फ एक क्राइसिस मैनेजमेंट के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है? इस बारे में आपकी टिप्पणी क्या है?
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