ऐसा जो माना जाता है कि पर्यावरण के विज्ञान के महत्व को लेकर हमारी जागरूकता बढ़ी है। कोई शक नहीं है कि पिछले 20-25 सालों से शायद सन् 1972 के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे में, उनके सभी सदस्यों ने पर्यावरण दिवस मनाना तय किया। संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे में पहली बार पर्यावरण कार्यक्रम नाम से एक अलग विभाग खोला गया। फिर संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने सभी सदस्यों से आग्रह किया कि वे भी अपने यहां जल्द-से-जल्द पर्यावरण विभाग बनाएं। पहले तो हमारे देश में विभाग भी नहीं था, एक समिति बनी। संयोजक व 10-20 विद्वान लोगों को लेकर कुछ काम हुआ। फिर समिति को विभाग का रूप मिला। फिर विभाग में से मंत्रालय निकला। जब मंत्रालय बना तो बहुत सारी संस्थाएं भी बनी और कुछ इधर-उधर जो भी उससे संबंधित काम है वे इधर खूब बढ़े हैं। दिवस बहुत मनाने लगे हैं अब। हम पर्यावरण दिवस मनाते हैं, धरती दिवस मनाते हैं, जल दिवस मनाते हैं। सब दिवस मनाते हैं लेकिन हम वर्ष नहीं मनाते। पर्यावरण को 365 दिन का कारोबार नहीं बनाते। विद्वता की कोई कमी नहीं है लेकिन अपने यहां बहुत पुराना शब्द है 'बेदिया ढोर'। वेदों का बोझा ढोने वाला। एक तरह से गधे जैसा काम है। चार वेद ऊपर रख लिए पीठ पर या दिमाग पर और आप कहोगे कि अनुपम मिश्र वेदों का जानकार है! ये तो बोझा ले जाना है। तो पर्यावरण की जागरूकता का ऐसा बोझा अभी बहुत देखने को मिलेगा। पर वह हमारे दिवसों में है, वर्ष में नहीं, आचरण में नहीं है, व्यवहार में नहीं है। सूचना और ज्ञान के इस नए दौर में समाज की रोज़मर्रा की समस्याएं दर्ज नहीं होती और उनके हल भी उसमें से नहीं निकलते। ये अपने रास्ते पर चल रहा है वह अपने पर। ये समानांतर रेखाएं हैं। कहीं जाकर मिलती नहीं हैं।
ऐसा नहीं है कि समाज में कोई गिरावट नहीं आई हो। उसका झंडा
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