हम हमेशा ऊंचा नहीं रख सकते। पूंजी और प्रौद्योगिकी बाहर से आ
सकती है पर दिमाग और हाथ तो अपने यहां के हैं। अपनी ही योजनाओं
ने नलकूपों को कैसे खोदा जिसमें से पानी के बाद अकाल निकल कर
आता हो और उन तालाबों की तरफ़ भला उनका ध्यान क्यों नहीं जाता
जिनमें पानी के साथ अकाल समा सकता है। तो आज की जो आधुनिक
प्रौद्योगिकी है इसने समाज और राज दोनों को भटकाने का काम किया
है। इसे हम फिर से दोबारा ठीक कर सकते हैं। कोई भी समाज कितने
दिन तक ऐसे भ्रम में रहेगा कि हम अपनी सब समस्याएं हल कर लेंगे
लेकिन बिना अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किए (क्योंकि बाहर की प्रौद्योगिकी
है, बाहर का पैसा है।) इस बार गुजरात में कम से कम तीन हजार गांवों
में तालाबों को ठीक करने का अभियान चला है। ऐसा नहीं है कि उनके
पास नलकूपों का पैसा नहीं है, उन्होंने 150 करोड़ रुपया इकट्ठा किया
जो आज तक किसी संस्था और आंदोलन ने नहीं किया। छह महीने में
150 करोड़ रुपया इकट्ठा करके अपने अकाल को हल करने की कोशिश
बहुत बड़ा लक्षण है। उसमें सरकार भी शामिल हुई बाद में। किसी एक
को तो पहल करनी पड़ेगी। समाज और राज की तो यह जुगलबंदी है
और इसमें बेताल कोई न हो, बेसुरा कोई न हो-इसका ध्यान रखना
पड़ेगा।
राजस्थान समाज के आगे मैं इसलिए नतमस्तक हूं कि उसने ओरण की व्यवस्था सैकड़ों वर्षों पहले निकाली। ओरण यानी एक ऐसा जंगल जो केवल अकाल के समय में खुलेगा। इसका मतलब एक ऐसा कुआं जो केवल आग लगाने पर उसे बुझाने के काम में आए। मतलब उसको पीने के लिए या नहाने के लिए नहीं लगाना है। ऐसे विशेष जंगल उन्होंने बनाए। इसका यह मतलब नहीं कि राजस्थान में अकाल नहीं आते। अकाल खूब आए लेकिन उनसे लड़ने की और उनको सहने की हमारी
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