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पर्यावरण का पाठ


दौर स्वतंत्र ठोकर खाने का है। आपकी ठोकर से मैं नहीं सीखूगा। आप कहोगे कि भई इसमें तुम्हारा अंगूठा टूटने वाला है पर मैं कहूंगा कि मैं खुद तोड़ कर देखूगा आप कौन होती हैं मुझे सलाह देने वाली! तो स्वतंत्र ठोकर खाने का ज़माना है तो खाते जाओ भई। अगर लोग न सुनना चाहे तो आप क्या करेंगी। अभी तक अकाल की इतनी चर्चा है, इसलिए पहली बार तालाबों पर ध्यान गया है। लेकिन कल अच्छा पानी गिरा सब लोग अगर इसको भूल जाते हैं तो फिर क्या करेंगे। और अगर मुखर लोगों का यानी जिनके हाथ में संपत्ति है, सत्ता है, योजना है उनका ध्यान ही नहीं गया तो क्या कर सकते हैं?

प्रकृति को स्वस्थ तरह से बरतते हुए मनुष्य की रचनात्मकता की यह बहुत सुंदर मिसाल है कि एक ही क्षेत्र में ईजाद की गई व प्रचलित प्रणालियां कमोबेश उसी भौगोलिक व पर्यावरणीय संरचना वाले अन्य क्षेत्र में बिल्कुल भिन्न तरह से आविष्कृत की जाती है। मानो वे एक ही स्रोत (लगभग एक ही तरह की पारिस्थितिकीय परिस्थितियों) से निकलने वाली दो अलग-अलग कृतियां हों। ऐसी आपस में भिन्न प्रणालियों को क्या एक दूसरे क्षेत्र में अवस्थित व अपनाया जा सकता है उन प्रणालियों की भिन्न चारित्रिकताओं को बरकरार रखते व उनसे सीखते हुए?

क्योंकि अमूमन हम अधिक-से-अधिक इन दिनों आधुनिक प्रौद्योगिकी और स्वदेशी प्रणालियों के बीच आवाजाही व सामंजस्य की संभावनाओं को लेकर तो बात करते हैं लेकिन आपस में भिन्न प्रणालियों के परस्पर एक दूसरे के क्षेत्र में अपनाई जा सकने वाली संभावनाओं को अनदेखा कर देते हैं। उदाहरण के लिए लातिन अमेरिका, अफ्रीका, भारत तथा दक्षिण एशिया ये सभी ट्रॉपिकल और सब-ट्रॉपिकल रिज़न्स कहलाते हैं,

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