इस तरह से इन जगहों में काफी समानता है। भारत की तरह की लातिन
अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण एशियाई है तो क्या हम उन तकनीकों
को जान कर व समझ कर व उनमें आपसी तालमेल स्थापित कर उन्हें
वर्तमान समय में प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग व उपभोग के एक सुदृढ़
व ठोस विकल्प की तरह नहीं अपना सकते?
परस्पर सीखने में तो कोई बुराई नहीं है, लाभ-ही-लाभ है। अपनी अच्छी चीजें दूसरे तक पहुंचाना, दूसरों की अच्छी चीजें अपनाना। मुख्य इसमें विवेक है कि हमारे योग्य क्या है। और दूसरा न तो भावुकता में और न किसी हीन भावना में उसको अपनाना चाहिए कि यह पश्चिम से आई है इसलिए बहुत अच्छी होगी और ये अफ्रीका से आई इसलिए कमज़ोर होगी। इन सब जगहों के समाजों का अपना एक इतिहास है कुछ हज़ार साल का। कोई भी नया समाज नहीं है। उन्होंने अपने आस-पास की मिट्टी, पानी, हवा से कुछ देखकर अपने लायक चीजें ढूंढ़ ली होंगी। हम नए नायक की तरह जाकर कुछ झंडा लगाएंगे। यह ठीक नहीं है। हां परस्पर प्रशंसा की जा सकती है और आदान-प्रदान की भी गुंजाइश है। उदाहरण के लिए पूरी दुनिया में जितने भी पर्वतीय क्षेत्र हैं उन सबमें पानी ऊपर से नीचे तेज़ी से बहता है। हर समाज ने चाहे वह अनपढ़ रहा हो, पढ़ लिख गया हो, ग्वाटेमाला का हो कोई भी भाषा बोलता रहा हो, आर्थिक स्थिति उसकी स्विट्ज़रलैंड, नेपाल जैसी हो हिमाचल जैसी हो- उसने घराट को ढूंढ़ ही लिया। घराट यानी पनचक्की। बहते पानी को एक जगह रोकना, उसको चलाना, उससे आटा पीसना। इस घराट में बढ़ई, लोहार और टकेरे, पत्थर टंकने वाले इन तीन की विद्वता का सर्वोत्तम जोड़ मिलेगा। ये पानी की ताकत को ठीक तरह से पहचानते थे। कितना पानी रोकना है हौद में, उसे कितनी ऊंचाई से गिराना है ताकि वह घराट का चक्का चला दे, आटा पीस दे ठीक से। कुल मिलाकर
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