चाहे वह विकास या समाज कल्याण या फिर पर्यावरण का ही क्षेत्र हो। आरंभ में इन संस्थाओं ने बहुत मूल्यवान व सराहनीय काम किए हैं, लेकिन पिछले एक दो दशकों में इन संस्थाओं पर गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं और ऐसा लगता है मानो वे अपने उद्देश्य व आदर्शों से च्युत हो गई हैं:
1. पर्यावरणसंकट व इसको लेकर जागरूकता व शिक्षा फैलाने में आप स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका पर क्या सोचते और इन्हें कितना महत्व देते हैं?
2. ग़ैर-सरकारी संगठन अक्सर विदेशी पूंजी पर निर्भर करते हैं आपको यह किस हद तक ज़रूरी व जायज़ लगता है?
हमारे मित्र राजीव वोरा इन संस्थाओं के बारे में एक बहुत अच्छी उपमा देते हैं: स्वस्थ समाज में स्वयंसेवी संस्थाओं की ज़रूरत ही नहीं। उसके अपने ऐसे संगठन हैं जिनमें से वह अपने को चलाए रखता है जैसे ओरण वग़ैरह की बात है। तालाब हैं। गांव में इतने सारे तालाब थे, मरुभूमि में सब जगह। इनको किसी स्वयंसेवी संस्थाओं ने नहीं बनाया था। आज से 50-100 साल पहले लोग अपने आप बनाते थे। उनको कैसे बनाना, कैसे उसकी योजना तय करना, उसके लिए पैसा कहां से लाना है इत्यादि। इसके लिए विश्व बैंक से पैसा नहीं आता था, कहीं दूसरी जगह से नहीं लाना पड़ता था। स्वस्थ समाज को संस्थाओं की ज़रूरत नहीं पड़ती। वैसी स्थिति में समाज ही सबसे बड़ी संस्था होती है। वह राज्य से भी बड़ी संस्था होती है।
अगर समाज स्वस्थ नहीं रहता, उसकी कोई एक गतिविधि पर असर आ जाए, कमज़ोरी आ जाए तो उसको पूरक भूमिका की तरह स्वयंसेवी संस्था उठा सकती है। टूटी टांग को सहारा देने वाली बैसाखी की भूमिका।
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