कि उनकी तमाम कोशिशें रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कमी लाने के बदले उसे लगातार बढ़ाती जा रही हैं।
पर्यावरण की भाषा इस सामाजिक-राजनैतिक भाषा से रत्ती-भर अलग नहीं है। वह हिंदी भी है यह कहते हुए डर लगता है। बहुत हुआ तो आज के पर्यावरण की ज़्यादातर भाषा देवनागरी कही जा सकती है। लिपि के कारण राजधानी में पर्यावरण मंत्रालय से लेकर हिंदी राज्यों के क़स्बों, गांवों तक के लिए बनी पर्यावरण संस्थाओं की भाषा कभी पढ़ कर तो देखें। ऐसा पूरा साहित्य, लेखन, रिपोर्ट सब कुछ एक अटपटी हिंदी से पटा पड़ा है।
कचरा-शब्दों का और उनसे बनी विचित्र योजनाओं का ढेर लगा है। इस ढेर को 'पुनर्चक्रित' भी नहीं किया जा सकता। दो-चार नमूने देखें। सन् 80 से आठ-दस बरस तक परे देश में सामाजिक वानिकी नामक योजना चली। किसी ने भी नहीं पूछा कि पहले यह तो बता दो कि असामाजिक वानिकी क्या है? यदि इस शब्द का, योजना का संबंध समाज के वन से है, गांव के वन से है तो हर राज्य के गांवों में ऐसे विशिष्ट ग्रामवन, पंचायती वनों के लिए एक भरा-पूरा शब्द-भंडार, विचार और व्यवहार का संगठन काफ़ी समय तक रहा है। कहीं उस पर थोड़ी धूल चढ़ गई थी तो कहीं वह मुरझा गया था, पर वह मरा तो नहीं था। उस दौर में कोई संस्था आगे नहीं आई इन बातों को लेकर। मरुप्रदेश में आज भी ओरण (अरण्य से बना शब्द) हैं। ये गांवों के वन, मंदिर देवी के नाम पर छोड़े जाते हैं। कहीं-कहीं तो मीलों फैले हैं ऐसे जंगल। इनके विस्तार की, संख्या की कोई व्यवस्थित जानकारी नहीं है। वन विभाग कल्पना भी नहीं कर सकता कि लोग ओरणों से एक तिनका भी नहीं उठाते।
अकाल के समय में ही इनको खोला जाता है। वैसे ये खुले ही रहते हैं, न कटीले तारों का घेरा है, न दीवारबंदी ही। श्रद्धा, विश्वास का घेरा
3