बैसाखी जितनी ही होनी चाहिए। इसकी भूमिका यह होनी चाहिए कि उस अंग विशेष की कमज़ोरी को दूर कर दे और फिर हट जाए। अभी ज़्यादातर संस्थाएं समाज के किसी एक कमज़ोर लक्षण के कारण खड़ी होती हैं। आंदोलन हो या समाज सेवी संस्थाएं हों वे पैसा देशी लाती हों या विदेशी लाती हों; स्वभाव उनका यह है कि वे समाज से ऊपर हैं। वे उसका हिस्सा हैं यह ताज़ा स्वभाव नहीं है। उनका स्वभाव अपने आपको समाज का एक उद्धारक मानने का और अपने को समाज से भी ऊपर मानने का बन गया है। वे अपने को समाज का हिस्सा नहीं मानी। संस्थाओं में घमंड बहुत है। वे शिक्षा का काम करती हों, पर्यावरण का कर रही हों, श्रमिकों के बीच में कर रही हों, उनको लगता है कि उनके बिना समाज की कोई गति नहीं है। अच्छी स्वयंसेवी संस्था की भावना यह होनी चाहिए कि समाज के पैर में खराबी आए तो हम बैसाखी की तरह इतने दिन इसके साथ रहें। इसके पैर को जल्दी-से-जल्दी ताक़त दें, और फिर हट जाएं। फिर भी अगर समाज को याद रखना है तो समाज ऐसी संस्था को याद रखेगा कि भाई यहां एक संस्था आई थी, उसने हमारे सब तालाब वग़ैरह ठीक किए अब उस संस्था का छोटा-मोटा ढांचा हमने आज भी बरक़रार रखा है। पर संस्था एक समस्या को लेकर काम करना प्रारंभ करती है। संस्था का रोज़-रोज़ आकार-प्रकार बढ़ता जाता है और अंततः समस्या वहीं-की-वहीं रहती है या वह बढ़ती जाती है! तो संस्था का इस तरह से बढ़ते रहना समाज पर बोझ है और नुक़सानदेह भी है क्योंकि समाज जो काम उस दौर में उंगली पकड़ कर शुरू कर सकता था वह कर नहीं पाता। उसे शुरू ही नहीं करने दिया जाता। इसलिए हम यह मानते हैं कि अच्छी संस्थाओं की भूमिका तो बैसाखी की तरह होनी चाहिए। वे समाज के उस ख़राब हिस्से को ठीक करें और फिर अपने को समेट लें। लेकिन आप देखेंगे कि एक भी ऐसी
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