बनाने वाली एक कंपनी को सरकार ने कीमती पेड़ काटने की इजाज़त दी। पेड़ का नाम है अंगू। अंग्रेज़ी में उसको ऐश कहते हैं। उससे टेनिस, बैडमिंटन के बल्ले बनते हैं। बहुत हल्की और मज़बूत लकड़ी होती है। लेकिन प्रकृति ने उसे बल्लों के लिए नहीं बनाया था। किसान उससे पहाड़ में जुआ बनाते हैं, हल के लिए। यह हल्का भी रहता है और मज़बूत भी है। किसानों को मना करता रहा वन विभाग कि अभी हमारे पास ये पेड़ देने के लिए बचा नहीं हैं। ये बहुत क़ीमती हैं। यहां 12 हैं वहां 15 पेड़, तुम्हें कैसे दे दें? लेकिन लखनऊ की एक बड़ी कंपनी को दे दिया। सन् 73 की बात है। जहां से पेड़ काटने थे, उसके पास छोटा-सा क़स्बा था गोपेश्वर। इतना छोटा कस्बा था कि वहां पर कोई होटल नहीं था। संस्था दशौली ग्राम स्वराज संघ और उसके मुख्य कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट इस कटान के विरुद्ध थे। उन्हीं का एक छोटा-सा अतिथि-गृह था। खेल कंपनी के लोगों ने बस स्टेंड पर उतरकर जब पूछा कि यहां कहां रह सकते हैं तो वहां के लोगों ने कहा यहां तो कोई होटल या धर्मशाला नहीं है, लेकिन एक सर्वोदय की संस्था है और उनका एक कमरे का अतिथि-गृह है, पूछ लीजिए, लोग रुका देते हैं। उनको वहीं ठहराया गया। बाद में भट्ट जी को पता चला कि वे लोग आ गए हैं और अपने ही अतिथि गृह में रुके हैं। फिर उन्होंने कहा कि उनको जाकर कहिए कि कल जब पेड़ काटने जाएंगे तो उनको पेड़ों पर लोग चिपके मिलेंगे। पहले अपनी पीठ पर कुल्हाड़ी चलवाएंगे और उसके बाद पेड़ों को काटने देंगे।
सत्याग्रह की एक ऊंची मिसाल है। उनको अपने अतिथि-गृह में ठहराया। लेकिन उनके ख़िलाफ़ घोषणा भी की है कि कल जब वो पेड़ काटने जाएंगे तो लोग पेड़ों पर चिपके मिलेंगे। उसके बाद कभी उनको चिपकने की ज़रूरत नहीं पड़ी। अगले दिन जब कंपनी के लोग गए तो उनको इतने सारे लोग जंगल में मिले थे कि कंपनी के चार लोग क्या
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