पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२२५

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अनुपम मिश्र


भी यह शिक्षा-पद्धति प्रामाणिक व प्रायोगिक सिद्ध हुई है। इन सबके बावजूद आधुनिकीकरण ने अपने उदय होने के पश्चात अपेक्षाकृत बहुत ही कम समय में हमारी प्राविधिक शिक्षा-पद्धति को हाशिए पर पहुंचा दिया है और वर्तमान समय में अपने वजूद के लिए संघर्षरत रहते हुए शनैः-शनैः ये स्वदेशी प्रणालियां लुप्त प्राय हो गई हैं। आपके विचार में इन स्वदेशी तकनीकी शिक्षा-पद्धति के अवसान की क्या प्रमुख वजहें रही होंगी? क्या इसका कारण ज्ञान का मौखिक तरह से हस्तांतरण तो नहीं था।

4. वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस स्वदेशी ज्ञान को किस रूप में समावेश करना सबसे ज़्यादा उपयुक्त होगा जिससे मानवीय रचनात्मकता को नयी दिशा प्रदान की जा सके? पारिस्थतिकी विज्ञान के पाठ्यक्रम में इस ज्ञान की क्या भूमिका हो सकती है?

मेरा अपना जो छोटा-सा अनुभव है उस आधार पर कह सकता हूं कि पर्यावरण के प्रति संवेदना आज बढ़ने के बदले घटी है। दिखती है बढ़ी हुई, लेकिन परिणाम नहीं दिखते उस अनुपात में। अपने सभी पुराने समाजों में इससे ज़्यादा संवेदना थी। उन्होंने अपनी पूरी जीवन शैली अपने उस पर्यावरण के इर्द-गिर्द ढाली थी। उन दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं था। ऐसा नहीं था कि पर्यावरण की शिक्षा देने से पर्यावरण मजबूत होगा या पर्यावरण के कारण शिक्षा मजबूत होगी-उस तरह की दो आंखों में यह विषय उन्होंने नहीं बांटा था। फिर एक बिल्कुल भिन्न किस्म की शिक्षा प्रणाली अंग्रेज़ों के कारण आई। वह अपने इलाक़े के पर्यावरण से कटी हुई है। वह बिल्कुल एक-सा काम सिखाती है लोगों को। अब चाहे नागालैंड में रहता हो उसको पढ़ने वाला या मरुभूमि में रहता हो, उसको

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