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पर्यावरण का पाठ


अपने इलाक़े से कोई मतलब नहीं। सिर्फ़ साधारण शिक्षा ही नहीं, भूगोल की शिक्षा भी वही है। जानकारी सबकी चाहिए लेकिन उसको बचाने के लिए अपनी क्या परंपराएं रही हैं इन सबकी तरफ से लोगों का बिल्कुल ध्यान हट गया है। एक दौर पिछले चार-पांच साल में यह भी आया है कि पर्यावरण के अलग से कोर्स बने हैं। प्राथमिक से लेकर महाविद्यालयों तक सभी स्तर पर कोर्स चलते हैं जो शायद आपने भी पढ़े होंगे। लेकिन इस समय जो कुल मिला कर शिक्षा का वातावरण है, उसमें पर्यावरण में अच्छे नंबर मैं ले आऊं, तो ज़रूरी नहीं है कि मैं अपने पर्यावरण की अच्छी रखवाली भी करूं। निचले स्तर पर इसकी शिक्षा की बहुत बातचीत हुई तो उसमें आप वर्तमान शिक्षा के दोषों से भी नहीं बच सकते। पर्यावरण की शिक्षा में भी नक़ल से काम चलेगा। जो लोग शिक्षा की धारा से काट दिए गए हैं, उन्होंने इसको शिक्षा का विषय न मानकर जीवन का विषय बनाया था और जीवन की शिक्षा से बड़ी कोई शिक्षा नहीं होती। उसी में से सब चीजें निकलनी चाहिए। इसलिए मुझे लगता है कि पर्यावरण का पाठ बहुत आगे नहीं ले जाएगा। पढ़ा-लिखा समाज इसमें से बनेगा वह विद्वान ज़रूर होगा लेकिन पर्यावरण के लिए अपने को न्यौछावर करने को तैयार नहीं होगा। उस चतुर में इतनी चतुराई होगी कि समाज के, पर्यावरण के संकट में, वह अपने को बचा लेगा!

किसी एक क्षेत्र विशेष के पर्यावरण का आज की शिक्षा में कोई दखल ही नहीं बचा है। इसलिए वह अलग-थलग पड़ा विषय बन गया है इस समय। लेकिन वह चोट करता है धीरज से। काफ़ी अत्याचार सहने के बाद। जब ऐसा कोई संकट समाज पर आता है तो मजबूरी में उसे अपने को पर्यावरण से जोड़ना पड़ता है। अपनी शिक्षा को नहीं जोड़ पाता है वह लेकिन अपने व्यवहार को जोड़ता है। उसका सबसे अच्छा उदाहरण गुजरात का अकाल है। शिक्षा को पर्यावरण से नहीं जोड़

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