पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२२७

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अनुपम मिश्र


पाया होगा गुजरात का बहुत बड़ा हिस्सा। लेकिन उसने अपने कामों को इसी पर्यावरण से जोड़ा और यह तय किया कि हमें अपने सब पुराने तालाबों की मरम्मत करनी चाहिए। जितना हो सके छोटे-छोटे नदी नालों को बांधना चाहिए। एक गांव में किसी सज्जन ने बहुत ही अच्छी बात कही। उससे शायद यह शिक्षा वाला मामला निकलता है। उन्होंने कहा कि हमने इस अकाल में तीन आधुनिक व्यवस्थाओं को असफल होते देखा। एक हमारे घर में पाइप की सप्लाई, दूसरा हमारे खेत का ट्यूबवेल और तीसरे हमारे मोहल्ले में हैंडपंप। तीनों सूख गए इस अकाल में। हमारे तालाब टूटे पड़े थे। तालाब उन्होंने ठीक किये। उसके बाद थोड़ा-सा एक झला गिरा, थोड़ा-सा पानी गिरा। वह तालाब में इकट्ठा हुआ। तालाब ठीक हो गया था। टूट-फूट उसकी उन्होंने ठीक कर दी थी तो पानी नीचे गया और उसने थोड़े ही दिनों में हैंडपंप को चालू कर दिया और फिर नलकूप में भी पानी आ गया। उन्होंने यह कहा कि हमने तीन आधुनिक चीजों को अपने सामने असफल होते हुए देखा और एक पुरानी व्यवस्था, जिसको हम भूल गए थे, जिससे हम कट गए थे, उसको हमने थोड़ी-सी मेहनत करके ठीक किया तो उसने इन नयी चीजों में भी जान डाल दी। इसलिए मुझे लगता है कि शिक्षा में यह बात दूसरे सिरे से जुड़ेगी कि अब हमको अपने स्कूल और कॉलेजों में पानी के प्रबंध के बारे में ऐसी शिक्षा देनी चाहिए या नहीं। बहस तो उठ सकती है। हो सकता है कि ये क्षेत्र अपनी औपचारिक शिक्षा में, तकनीकी शिक्षा में तालाबों की बात करें। इस तरह से शिक्षा भी हमारे पर्यावरण में जुड़ सकती है।

इस पाठ्यक्रम की एक और बड़ी दिक़्क़त दिखती है। सरकारी वाक्य है-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। एक स्टैंडर्डराइज़ेशन समाज में चाहिए एक-सी नौकरियों के लिए। लेकिन शायद एक से जीवन के लिए

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