पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२३

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अनुपम मिश्र


इन वनों की रखवाली करता रहा है। हज़ार-बारह सौ बरस पुराने ओरण भी यहां मिल जाएंगे। जिसे कहते हैं बच्चे-बच्चे की ज़बान पर ओरण शब्द रहा है पर राजस्थान में अभी कुछ ही बरस पहले तक सामाजिक संस्थाएं, श्रेष्ठ वन विशेषज्ञ या तो इस परंपरा से अपरिचित थे या अगर जानते थे तो कुछ कुतुहल भरे, शोध वाले अंदाज़ में। ममत्व, यह हमारी परंपरा है, ऐसा भाव नहीं था उस जानकारी में।

ऐसी हिंदी की सूची लंबी है, शर्मनाक है। एक योजना देश की बंजर भूमि के विकास की आई थी। उसकी सारी भाषा बंजर ही थी। सरकार ने कोई 300 करोड़ रुपया लगाया होगा पर बंजर-की-बंजर रही भूमि। फिर योजना ही समेट ली गई। और अब सबसे ताज़ी योजना है जलागम क्षेत्र विकास की। यह अंग्रेज़ी के वॉटरशेड डेवलपमेंट का हिंदी रूप है। इससे जिनको लाभ मिलेगा, वे लाभार्थी कहलाते हैं, कहीं हितग्राही भी हैं। 'यूज़र्स ग्रुप' का सीधा अनुवाद उपयोगकर्ता समूह भी यहां है। तो एक तरफ़ साधन संपन्न योजनाएं हैं, लेकिन समाज से कटी हुई। जन भागीदारी का दावा करती हैं पर जन इनसे भागते नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ़ मिट्टी और पानी के खेल को कुछ हज़ार बरस से समझने वाला समाज है। उसने इस खेल में शामिल होने के लिए कुछ आनंददायी नियम, परंपराएं, संस्थाएं बनाई थीं। किसी अपरिचित शब्दावली के बदले एक बिल्कुल आत्मीय ढांचा खड़ा किया था। चेरापूंजी, जहां पानी कुछ गज़ भर गिरता है, वहां से लेकर जैसलमेर तक जहां कुल पांच-आठ इंच वर्षा हो जाए तो भी आनंद बरस गया-ऐसा वातावरण बनाया। हिमपात से लेकर रेतीली आंधी में पानी का काम, तालाबों का काम करने वाले गजधरों का कितना बड़ा संगठन खड़ा किया गया होगा। कोई चार-पांच लाख गांवों में काम करने वाले उस संगठन का आकार इतना बड़ा था कि वह सचमुच निराकर हो गया। आज पानी का, पर्यावरण का काम करने वाली बड़ी

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