सामने हाज़िरी ले ली है कि कितनी लड़कियां बैठी हैं, कितने लड़के बैठे हैं। उस किताब का नाम है 'द ब्यूटीफ़ुल ट्री'। यह वैसे 20-25 साल पहले की किताब है। वह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए। उससे थोड़ा अंदाज़ लगता है कि अंग्रेजों से पहले हमारी शिक्षा कैसी थी। गांधीजी ने शायद गोलमेज़ कॉन्फ़्रेंस स में या किसी जगह पर कहा था कि आप इस मुगालते में न रहें कि आपके आने से पहले हमारे यहां शिक्षा नहीं थी। आपके आने से पहले शिक्षा का एक भरा पूरा वृक्ष हमारे पास था जिसकी जड़ें बहुत गहरी गई र्थी और जिसकी शाखाओं का अनंत विस्तार था। इस वाक्य से धर्मपाल जी ने अपनी किताब का नाम 'दी ब्युटीफ़ुल ट्री' रखा था।
मुझे लगता है कि दो तरह की शिक्षा रही होगी। एक जीवन की कुछ गंभीर बातों की और दूसरी रोज़मर्रा के काम की। यानी दोनों तरह की शिक्षा का उतना ही सम्मान था। यह सब कैसे नष्ट हुआ? यह मेरा विषय नहीं है इसलिए मैं कह नहीं सकता। लेकिन एक बार हारा हुआ समाज हारता चला जाता है। फिर उसके सिरहाने पर भी कुछ रखा हो तो उसको वह भूल जाता है। उसकी ऐसी मनोदशा हो जाती है। तालाब वाली किताब चूंकि आधार है इन सारी बातचीत का इसलिए दर्ज करना ठीक रहेगा कि तालाब कैसे बनाते थे इसका कोई छोटा-मोटा दस्तावेज़, पुरानी हस्तलिपि संस्कृत में, बोली में बहुत खोजने पर भी हमको कहीं नहीं मिली। फिर एक जगह हमको यह सूझा कि तालाब कैसे बनते थे के बदले समाज ने यह किया कि तालाब ऐसे बनते थे। बना के दिखाया। आप उसे बना लीजिए। तो कैसे बनते के बदले ऐसे बनते थे पर ज़्यादा ज़ोर दिया। एक के बाद एक हर पीढ़ी तालाब बनाती चली गई तो कोई नई चीज़ किसी को सीखने की ज़रूरत नहीं थी। वह नयी रही ही नहीं।
शून्य हो तो सीखना पड़ेगा। जब रोज़मर्रा का काम हो तो फिर सिखाने की ज़रूरत नहीं।
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