आप प्रतिष्ठा हर लीजिए, तब तालाब कैसे बनेंगे फिर? अपने यहां कभी ऐसी कर प्रणाली नहीं थी राजा की तरफ़ से। क्रूर राजाओं के किस्से पिछले 100-150 सालों में हमने सब सने हैं। पर किसी भी राजा के हाथ में कभी इतनी शक्ति नहीं रही जितनी आज शायद एक कलेक्टर के हाथ में होगी या डी.एम. के हाथ में होगी। जैसे हर्षवर्धन के बारे में कहते हैं कि वे हर कुंभ में अपना खज़ाना खाली कर जाते थे। इसके दो अर्थ हो सकते हैं कि राजा बहुत उदार थे। पूरा ख़ज़ाना वे कुंभ में बांट देते थे। दूसरा शायद ज़्यादा व्यावहारिक है कि उनका ख़ज़ाना इतना कम होता था कि उसे बारह साल में खाली कर जाना कोई कठिन काम नहीं होता था!
आज की सरकार जैसा करोड़ों का और वह भी करोड़ों के घाटे का खजाना नहीं रहा होगा। कुछ पैसा देना है तो वहां पर न्यौछावर कर दिया। ऊपर राजा तक बहुत कम राशि पहुंच पाती थी। अधिकांश चीजें नीचे छूट जाती थीं। धर्मपाल जी ने अंग्रेजों से पहले के भारत में बताया है कि एक अच्छे कृषि संपन्न गांव में से कितनी पैदावार हुई, रुपया या मुद्रा के हिसाब से उसका कितना प्रतिशत वहीं रह गया। उसमें यह पता चलता है कि सबसे बड़ा भाग, अधिकांश हिस्सा वहीं रह जाएगा और वह मंदिर को जाएगा। मंदिर का मतलब चढ़ावे के लिए नहीं। उस समय का मंदिर उस आमदनी को सामाजिक कामों में लगाता था। किसी एक अंग्रेज़ डॉक्टर का वर्णन है कि किसी इलाके में चेचक जैसी महामारी फैली है तो मंदिर का पुजारी टीका लगा रहा है।
एक जगह यह वर्णन है कि पुलिस की सारी व्यवस्था मंदिर देखता है। आज हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते और उसमें यह भी कि अगर उस गांव में चोरी हो जाती है और पुलिस पता नहीं कर पाती है तो पुलिस के कुल वेतन में से वह रकम काट के वापस करता है मंदिर। पुजारी कहेगा कि भाई हमसे गलती हुई। इतने रुपए चीरी हुए, हम इतने दिन में
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