पता नहीं कर पाए। यह इनकी तनख़ाह में से काट कर जमा किया जा रहा है। इसके बाद कौन-सी चोरी होगी ऐसी कि जो पकड़ में नहीं आ सके! यह स्मृति 200 साल बाद भी पूरी तरह से मिटी नहीं है। अभी इस अकाल में एक गांव का बहुत वर्णन छपा है। गुजरात के राजसमदड़िया नाम के गांव के सरपंच बीस साल पहले अंग्रेज़ी में एम.ए. करके पुलिस की नौकरी में जा रहे थे। पर उन्होंने कहा कि नहीं अपने गांव की सेवा करनी चाहिए। तो गांव में सरपंच बन गये। उन्होंने अभी एक अखबार के इंटरव्यू में कहा है हमारे यहां अगर कोई अपराध हो, चोरी हो उसकी रिपोर्ट पुलिस में लिखवाने पर हम दंड देते हैं। पुलिस के पास मत जाओ। ग्राम सभा को रिपोर्ट करो। तीन दिन में हम अगर आपका हल नहीं ढूंढ़ पाए तो हम उतना पैसा वापस करेंगे।
आज की शिक्षा प्रणाली में स्वदेशी ज्ञान की रत्ती भर गुंजाइश नहीं दिखती। एक तरफ़ हम देखते हैं कि स्वदेशी शब्द पिछले दो-चार साल में बहुत ऊपर आया है। इसके बाद भी वह व्यवस्था में कोई जगह बना पाएगा ऐसा नहीं लगता। लेकिन एक दौर ज़रूर आ सकता है। जैसे कि गुजरात वाली बात हुई। ऐसे दो-तीन छुट-पुट किस्से अगर होते हैं तो लोगों का ध्यान इस बारे में तो ज़रूर आएगा कि स्वदेशी की बात एक सिद्धांत के नाते नहीं व्यवहार के नाते भी ज़रूरी है। जिसकी स्मृति में से जो चीज़ जाती है पहले वहीं वापस आनी चाहिए। पहले समाज के मुख्य हिस्से से जो चीजें गईं तो उनके ध्यान में आनी चाहिए। फिर शिक्षा में वापस आएगी, ऐसा नहीं होगा कि शिक्षा के माध्यम से समाज में आएगी, कुछ पूरक भूमिका ज़रूर हो सकती है।
इसलिए अकाल के कारण, कभी बाढ़ के कारण, कभी किसी और चीज़ के कारण ठोकरें लगेंगी। उनको लगेगा कि ये तालाब मामूली गड्ढे नहीं थे। ऊलजुलूल उटपटांग हरकतें नहीं थीं। सोची समझी एक
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