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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२३३

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अनुपम मिश्र


तकनीकी व्यवस्था का रूप था। लेकिन यह वैसा रूप नहीं था जो आज हम इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में पाते हैं। उसके पीछे एक सांस्कृतिक आधार था। उसके पीछे तीज त्योहार थे। उसी से लौटना होगा क्या? दो शब्द हैं-समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध। अगर कोई चीज़ समयसिद्ध है तो 25-50, 100 साल की उपेक्षा की आंधी उस पर कोई असर नहीं डालेगी। अगर कोई समयसिद्ध है, स्वयंसिद्ध है तो उसे किसी बाहरी चीज़ की कोई ज़रूरत नहीं है। उसने समाज के बहुत बड़े इतिहास की सेवा की है। वर्तमान में वह थोड़ी देर के लिए लुप्त हो गई है। भविष्य में वह वापस आ सकती हो, तो ही वह एक परंपरा या स्वदेशी कहलाएगी। नहीं तो उससे जब छुटकारा मिले, मिल जाने दो। उसका मोह क्यों करें? यह 'हमारी' चीज़ है मोह इसलिए रखना ज़रूरी है? हम तो कहते हैं कि कोई आधुनिकतम मशीन या आविष्कार अगर मरुभूमि को पानी दे दे तो हम कुंड, कुएं व तालाबों को एक म्यूज़ियम बना कर रख दें हमेशा के लिए। चार आने का टिकट लगा देंगे। लेकिन हो यह रहा है कि जिनको हम आधुनिक मानते हैं वह तकनीक, तरीके केवल पानी निकाल सकते हैं। पानी पैदा नहीं कर सकते, पानी का संग्रह नहीं कर सकते। इसलिए लौट कर आपको उसी पर आना पड़ेगा। और यह सब केवल अपने यहां का नहीं-सभी जगह यह अनुभव ठोकर खा कर वापस आएगा।

अभी के विज्ञान की पढ़ाई और 'पारिस्थितिकी विज्ञान' की पढ़ाई में अंतर नहीं है। यह नया है। अपने समाज से कटा हुआ पढ़ाई-लिखाई का कोई भी ढांचा एक तरह से बोझा ही होता है। पर्यावरण विषय भी उसी पद्धति में से निकला हुआ एक विषय है। माध्यम हिंदी हो, अंग्रेज़ी हो यह बहस नहीं है। कुल मिला कर जो ज्ञान दिया जा रहा है, वह अंग्रेजी विचार का दिया जा रहा है। फ़र्क़ समझ में आ गया ना? भाषा हिंदी हो सकती है, सिंधी, गुजराती हो सकती है लेकिन विचार अंग्रेज़ी

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