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पर्यावरण का पाठ


भी नष्ट नहीं करते थे। किसी को यह नहीं कहा कि तुम्हारा देवता सफ़ेदा है उसको लगाओ और पैसे कमाओ। इस समय तो सब जातियों की एक ही धराडी है। लेकिन यहां तो एक-एक छोटे-बड़े पेड पौधों का ध्यान रख कर उनको पनपने के अवसर बाकायदा दिए गए। यह अनजाने में हो गया ऐसा नहीं। एक व्यवस्थित ढांचा उसका खड़ा किया गया था। इसलिए वह जैव विविधता और वह समाज भी लंबे समय तक बचा रहा। आज वह हमको गिरता पड़ता दिखता है तो शायद यह बहुत छोटा इतिहास है।

ऐसा नहीं है कि आधुनिक ज्ञान और उसके ख़िलाफ़ कमर कस लेनी है। अलग-अलग समय के अलग-अलग हथियार होते हैं। जो उनको चलाने में सिद्धहस्त हैं उन्हें उनको चलाने देना चाहिए। हो सकता है कि उन्हीं के कुछ तरीके भी अपनाने पड़ें। इसमें कोई विवाद नहीं है। लेकिन विवेक तो अपना होना चाहिए। कई बार तो ऐसा हो जाता है कि हम उनके ख़िलाफ़ लड़ते दिखाई देते हैं पर उनके विवेक से लड़ते हैं, अपने विवेक से नहीं लड़ते।

1. हाल ही में वन संरक्षण और प्रबंधन की चर्चा सारे विश्व में जोरों से की जा रही है परंतु सदियों से जो वनवासी इन वनों को धरोहर के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक दूसरे को सौंपते आए हैं और इनकी देखभाल करते आए हैं उन्हें पूरी चर्चा में कहीं शामिल नहीं किया जा रहा है। उल्टा उन्हें ही दोषी करार देकर इन वनों से बेदख़ल किया जा रहा है। इनकी आबादी में वृद्धि से जंगलों पर ईंधन और चारे का बोझ बढ़ा है, फिर भी इस पूरे परिदृश्य को आप किस दृष्टि से देखते हैं और क्यों?

2. धरती को हरा-भरा करने के चक्कर में वन-विभाग के अफ़सरों ने जो कई सारी exotic प्रजातियां इंट्रोड्यूस की हैं जैसे की

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