पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पर्यावरण का पाठ


वहां के जंगल भरपूर कटे। आज़ादी के बाद भी वही व्यवस्था चली। पिछले दो-चार साल से बात हो रही है कि अब 'संयुक्त वन प्रबंध' करना चाहिए। वन विभाग से वनों का बोझा ढोते नहीं बना। उनके पैर डगमगा गए। तो विभाग ने कहा, 'आप लोग भी आओ इसमें आप भी शामिल हो'। इसलिए 'संयुक्त प्रबंध' की चर्चा में कम-से-कम 'सोलो' के बारे पूछना चाहिए कि इनका एकल प्रबंध कौन करता था। इससे पहले जो जाति और समाज प्रबंध करते थे, उनको प्रयोग के तौर पर एक ज़िला, एक प्रखंड तो सौंप कर देखो।

हम सुनते रहे हैं कि गांव के बोझ के कारण वनों पर बोझ पड़ा, लकड़हारे, लकड़हारिनें वन काट रही हैं। वन क्षेत्रों के नज़दीक हर जगह पेड़ काटने वालों की कतार चलती आती है। पर यह लकड़ी किसके लिए काट रहे हैं ये? यह अपने चूल्हे के लिए नहीं काट रहे। ये लोग लकड़ी शाम को बाजार में बेचते हैं। जो आबादी गैस नहीं ले पाई है अभी, चूल्हे से छोटे कस्बों में काम चलाती है, उनके लिए लकड़ी कट कर आ रही है। सिर का बोझा अपने लिए नहीं है। आदिवासी अपने लिए तो कचरा जला रहा है। क्या जला रहा है यह तो पता ही नहीं। उनका खाना कैसे बन रहा है? इसमें से तो वह दो पैसे बचाता है। इसलिए यह कहना कि उसके कारण नष्ट हुआ, यह तो बहुत बड़ी गलती है। इसको हम कब सुधारेंगे? कब उनसे क्षमा मागेंगे? जिनको बिना किसी मुआवज़े के बेदख़ल कर दिया गया, आज उनको ज़मीन के लिए लड़ना पड़ता है, आज उन्हें जंगल के लिए लड़ना पड़ता है, उन्हें पानी के लिए लड़ना पड़ता है। इन तीनों चीज़ों पर उनका पूरा नियंत्रण था। उनका प्रबंध भी बहुत अच्छा था। किसी भी दूसरे समाज से कमज़ोर नहीं था।

कुछ हिस्सों में पहाड़ों में और मैदानों में-सफ़ेदा नाम का पेड़ लगा है। हिमालय में भी है गुजरात में भी आया है। लोगों ने अनाज बोना बंद

225