पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
अनुपम मिश्र


कर यह बोना शुरू किया। कहा गया कि अनाज से ज़्यादा पैसा तो इसमें से मिलेगा। पूरा समाज इसी काम को करने लग जाएं कि अनाज से ज़्यादा तो इसमें से पैसा मिलेगा तो खाओगे क्या? सफ़ेदा खा नहीं सकते। इसी तरह विलायती बबूल का किस्सा है। पूरी मरुभूमि इसमें गई और कच्छ भी गया। कच्छ का बहुत बड़ा हिस्सा। दिल्ली वगैरह में भी खूब आ गया है। वह तो बिल्कुल एक खरपतवार की तरह बढ़ता है।

तीसरा एक पेड़ और है। इसके प्रति वन विभाग का मोह तो है ही, अच्छी स्वयंसेवी संस्थाओं का भी मोह रहा है। वह है सुबबूल। उसका नाम पहले कुबबूल था। बाद में अपने गुणों के कारण इसे सुबबूल नाम मिला। वह भी किस से?

इस पेड़ की तारीफ़ श्रीमती इंदिरा गांधी को इतनी सुनाई गयी कि उन्होंने पूछा कि अगर इतनी तारीफ़ करते हैं इस पेड़ की तो इसका नाम कुबबूल क्यों है? इसका नाम तो सबबल होना चाहिए। उसी दिन से वह सुबबूल हो गया। ऐसे तीन पेड़ों को लगाकर देश को हरा-भरा दिखाने का काम चलता रहा है। यह लीपापोती अपनी गलतियों को छिपाने के लिए है। सफ़ेदा तो सिर्फ इसीलिए लगता रहा है क्योंकि उसे जानवर नहीं खाते। ऐसे वृक्षारोपण का मतलब क्या जिसको जानवर नहीं खाए। इसका मतलब कि इसे राजनीति वाले, वन विभाग वाले खाते हैं! जो किसी विभाग की कमियों को छिपाने के काम आए, इसका मतलब है वह उस विभाग का चारा है। उसके काम का पेड़ था इसलिए विभाग ने उसको बहुत प्यार किया और फिर-थोड़ा बाज़ार के भी काम का था। पर बाज़ार का अपना स्वभाव होता है। बहुत लग गया सफ़ेदा तो दाम गिर गए।

तो उसका इतना मामूली दाम मिलने लगा कि धीरे-धीरे लोग हतोत्साहित होने लगे। सोयाबीन का भी एक दौर आएगा और भी कुछ चीज़ों का।

226