चलेगा। मुख्यधारा के इन नागरिकों में बोध वाली गुंजाइश मुझे बहुत कम दिखती है। मुझे लगता है कि ऐसे में कर्तव्य बोध की ज़्यादा ज़रूरत है। जो जहां है उसका क्या कर्तव्य है, जो जहां है उसका क्या कर्तव्य होना चाहिए; वह सोचना शुरू करे। समाज का अधिकांश हिस्सा तो अभी भी अपने जीवन को उस ढंग से चलाना चाहता है। लेकिन उसके हाथ में अब किसी तरह की पहल, शक्ति, साधन नहीं बचे हैं। वह सब तो उससे छीन लिया गया है। शायद कहीं बीच में एक बातचीत छूट गयी थी। गांव का सबसे अधिक राजस्व वहीं का वहीं छोड़ा जाता था। मैसूर का एक क़िस्सा है। तालाब की किताब में है। जो लोग तालाब की रखवाली करते थे उनसे कम कर लिया जाता था। तालाब बनाने वालों को भी कर में विशेष छूट दी जाती थी। ये सब जब नष्ट कर दिया जाए तो तालाब सरकार के हवाले हो ही जाएगा। हमारा तो सारा पैसा सरकार ने ले लिया, अब हम क्या कर सकते हैं! ऐसे में पर्यावरण के शिविर लगाएं या चेतना जगाएं तो भी क्या हो जाएगा। उनके हाथ में साधन नहीं हों, और उनकी प्रतिष्ठा भी नहीं हो। इसलिए शायद पहले प्रतिष्ठा वापस करना ज़्यादा सरल होगा। उसमें कोई ताक़त और पैसा नहीं लगने वाला। केवल मन लगाने की बात है कि ये लोग हैं जो तालाब बनाते थे, अपना पर्यावरण संवारते थे, सजाते थे, इनके कारण बाक़ी चीजें टिकती थी। इसलिए उनको पहले हम इज़्ज़त वापस करें। इज़्ज़त आने के बाद वे साधन भी ला सकते हैं। कछ इलाक़ों मे पहले साधन आ सकते हैं। वैसे इलाक़े कम होंगे। जैसे गुजरात का उदाहरण यहां दे सकते हैं। पाटीदार समाज ने 150 करोड़ रुपए पहले साधन के रूप में डाल दिया पर वह भी इसलिए हुआ कि उनकी प्रतिष्ठा है, वहां पर। लेकिन हम ऐसी उम्मीद बस्तर से नहीं कर सकते।
अलवर में तरुण भारत संघ ने पहले साधन जुटाए, फिर वहां प्रतिष्ठा भी वापस आयी। कहीं यह होगा, कहीं वह। लेकिन इतनी मेरी श्रद्धा
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