पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२५२

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पर्यावरण का पाठ


है। हरेक समाज थोड़े बहुत गणित पर चलता है। शुभ-अशुभ अच्छे काम का भी विचार करता है। एकाध बार कभी गलत समय में फावड़ा चलाया वह तालाब बाद में कभी ट गया होगा तो लोगों को लगा होगा कि मुहूर्त नहीं देखा। फिर कुछ इस तरह के क्षण निकल गये। यह एक चेतना का भी स्तर हो सकता है। इससे ज़्यादा तो मैं नहीं जानता। किताब में हम लोगों ने इसलिए लिखा कि लगभग हर जगह दक्षिण में, मध्य प्रदेश में, राजस्थान में एक-सी तिथियां मिलती हैं, इस काम को करने के लिए। कुल बाद में सिमट के मुहूर्त में बदल जाती होंगी। पहले तो यही जानकारी रही होगी कि अमुक दिन करने से लगता है थोड़ा नुकसान हुआ। अमुक दिन करने से नहीं हुआ। फिर एक जगह आकर वह एक सामूहिक चेतना में बदल जाती है। इस तरह से ये दिन तय हुए होंगे। जब सबका अनुभव एक जगह निचुड़ कर आया होगा कि भाई यह अच्छा दिन है। तो यह व्यवहार भी है, विज्ञान भी है लगभग एक जैसा है सब जगह।

पानी के ये जो सिद्ध पुरुष हैं उनको बोली में जलसूंघा भी कहा गया है। पानी सूंघना जानते हैं। जल की अपनी एक तरंग होती है और उसको आज आधुनिक विज्ञान यंत्रों से खोजता है। कुछ के हाथ में शरीर में ऐसी संवेदनाओं का संचार होता होगा कि वे जल तरंग का कंपन ग्रहण कर लेते हैं। ये लोग हाथ में जामुन की, आम की लकड़ी लेकर उसे ज़मीन के समानांतर ले जाते हैं। राजस्थान में बहुत सारी संस्थाएं या घर नए चलन के अनुसार हैंडपंप या ट्यूबवैल वग़ैरह की जगह आधुनिक यंत्रों से पक्की करवाते हैं। बाद में जलसूंघे को बुलाकर उसकी पुष्टि भी करते हैं कि भाई यही जगह ठीक है कि नहीं। यह बहस सन् 50 में अमेरिका में भी खूब चली। तब तक वहां भी ऐसे यंत्र वगैरह नहीं आए थे। इस पर एक किताब भी थी। पानी को लकड़ी से कैसे ढूंढ़ते हैं यह विज्ञान है कि नहीं, वहां बड़ी बहस चली। कुएं वहां भी इसी पद्धति से खोजे गए थे। इसकी विशेष जाति, गुरु शिष्य परंपरा भी चलती है। पिता से पुत्र को भी यह

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