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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२५४

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पर्यावरण का पाठ


पानी। उसका इंतज़ाम हो गया तो उसकी फ़सल आ गई। अच्छी हो जाएगी। इसलिए भोपा जी इसकी घोषणा करते थे कि ज़माना कैसा होगा। आज भी ऐसे लोग बचे हैं। अलवर वग़ैरह में वहां ज़माना देखने वाली परंपरा लोग नहीं भूले थे। भोपा जैसा संगठन नहीं है। लेकिन उनकी स्मृति में इस काम का महत्व है। अरवरी नदी किनारे के जितने गांव हैं, उन्होंने आपस में बैठक करके सितंबर में यह तय किया कि इस वर्ष पानी बहुत कम गिरा है। 40 प्रतिशत पानी गिरा। इसलिए ऐसी फ़सल नहीं लगाएं जो पानी ज़्यादा मांगती है। नहीं तो यह पानी ख़त्म हो जाएगा। कम पानी गिरा है तो व्यवहार में भी ऐसा रखो कि पानी का ख़र्च कम हो। इसलिए वे लोग उनके गांव अकाल को सह गए। उन्होंने कहीं भी गन्ना, गेहूं, इस तरह की चीजें नहीं बोईं। अगर ऐसी फ़सल ले लेते, रबी में जिसकी पानी की मांग ज़्यादा होती है तो जो कम पानी गिरा है वह उनको धोखा दे जाता। गुजरात महाराष्ट्र आदि में सब जगह यही हुआ कि पानी कम गिरा। कोई भोपा न पुराना है, न नया भोपा है। नये भोपे कौन हो सकते हैं? यह मज़ाक़ में नहीं कह रहा। नए भोपे कलेक्टर होते हैं। उस ज़िले का प्रमुख अधिकारी जो यह मुनादी करे। रेडियो, टी.वी. से संदेश दे कि भाई इस साल पानी कम गिरा है। किफ़ायत रखनी पड़ेगी। कुएं में पानी का स्तर देख कर ही सिंचाई करो। ज़्यादा मत करो। नहीं तो हम दोनों तरफ़ से चले जाएंगे। तो बाक़ी जगह यह हुआ कि लोगों ने विवेक नहीं दिखाया इस मामले में। ऐसी फ़सलें लगाई जो पानी ज़्यादा लेती हैं। पानी भी गया और फ़सल भी गई। अकाल पड़ा इसलिए। उनका भूजल भी चुक गया। अलवर में उसको बचा कर रख लिया। साधारण फ़सल लगायी। मोटा अनाज। कुछ फ़सल भी हाथ आई। पीने का पानी भी रहा और पशुओं के लिए भी रहा। इसलिए वहां से आबादी का पलायन नहीं हुआ। तो यह भोपा वाली पद्धति ही थी। कोई-न-कोई एक प्रतिष्ठित

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