बचपन की यादें कोई खास नहीं। शायद घटनाएं भी ख़ास नहीं रही होंगी-उस दौर में एक साधारण पिता के जो संबंध साधारण तौर पर अपने बच्चों से रहते हैं, ठीक वैसे ही संबंध हमारे परिवार में रहे होंगे।
मेरे जन्म के बाद हम सब वर्धा से हैदराबाद आ गए थे। वे दिन हमारे लिए यह सब जानने-समझने के थे नहीं कि मन्ना कहां क्या काम करते हैं। पर एक बार वे घर से कुछ ज़्यादा दिनों के लिए बाहर कहीं चले गए थे। तब शायद मैं पहली कक्षा में पढ़ता था। वे तब मद्रास गए थे। लौटे तो उनके साथ एक सुंदर चमकीला चाकू आया था। मन्ना को सब्ज़ी काटने का ख़ूब शौक़ था सब्ज़ी खरीदने का भी। यह शौक़ कभी-कभी अम्मा की परेशानी में बदल जाता। जितनी सब्ज़ी चाहिए, कई बार उससे बहुत ज़्यादा ढेर उठा लाते क्योंकि बेचने वाली का बच्चा छोटा था, वह सब कुछ बेच जल्दी घर लौट सकती थी। बचपन में हमने उन्हें न तो कविता लिखते देखा न पढ़ते-सुनाते। मद्रास के उस स्टील के चाकू से खूब मज़ा लेकर सब्ज़ी काटते थे-इसकी हमें याद बराबर है।
यह दौर था जब वे मद्रास में ए.वी.एम. फ़िल्म कंपनी के लिए कुछ गीत और संवाद लिखने गए थे। सब्ज़ी ख़रीदने में बहुत ही प्रेम से भावताव करने वाले मन्ना ए.वी.एम. के मालिक चेट्टियार साहब से अपने गीत बेचते समय कोई भावताव नहीं कर पाए थे। गीत बेचने की इस उतावली में उनका लक्ष्य पैसा कमाना नहीं बल्कि कुछ पैसा जुटा लेना था। बड़े परिवार में 2-3 बुआओं का विवाह करना था। रजतपट के उस प्रसंग में उन पर कुछ कीचड़ भी उछला होगा। उसी दौर में उन्होंने गीतफ़रोश कविता लिखी थी। हमने तब घर में रजतपट के चमकीले क़िस्से कभी सुने नहीं। क़िस्से सुने ए.वी.एम. के होटल के जहां रोज़ इतनी सब्ज़ी कटती थी कि अच्छे से अच्छे चाकू कुछ ही दिनों में घिस जाते थे, फिर फेंक दिए जाते थे। रजतपट की सारी चमक हमारे घर में इसी चाकू में समा कर आई थी मद्रास से।
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