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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२६१

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अनुपम मिश्र

चेट्टियार साहब से किसी विवाद के बाद वे गीत बेचने की दुकान बढ़ा कर घर लौट आए। गीत फ़रोश में किस्म-किस्म के गीतों में एक गीत 'दुकान से घर जाने' का भी है। शायद जब वे तरह-तरह के गीत बेच रहे थे, तब उनके मन में घर आने का गीत 'गाहक' की मर्जी से बंधा नहीं था।

ए.वी.एम. की वे फ़िल्में, जिनमें मन्ना ने गीत और संवाद लिखे थे, डिब्बे में बंद नहीं हुईं। वे हैदराबाद के सिनेमाघरों में भी आई होंगी, पर मन्ना ने उन्हें अपनी उपलब्धि नहीं माना। हम लोगों को, अम्मा को सजधज कर उन्हें दिखा लाने का कभी प्रस्ताव नहीं रखा। शायद उनके लिए ये गीत 'मरण' के थे, फ़िल्मी दुनिया में रमने के नहीं, मरने के गीत थे।

साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए मन्ना का वह दौर प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका कल्पना का दौर था। पर हम बच्चों की कल्पना कुछ और ही थी। घर में कभी शराब नहीं आई पर हैदराबाद में हम शराब के ही घर में, मोहल्ले में रहते थे। मोहल्ले का नाम था टकेरवाड़ी। चारों तरफ़ अवैध शराब बनती थी। उसे चुआने की बड़ी-बड़ी नादें यहां-वहां रखी रहती थीं। यों हमारे मकान मालिक जिन्हें हम बच्चे शीतल भैया मानते थे, खुद इस धंधे से एकदम अलग थे। पर चारों तरफ इसी धंधे में लगे लोग छापा पड़ने के डर से कभी-कभी कुछ समान, नाद आदि हमारे घर के पिछवाड़े में पटक जाते। 4-5 बरस के हम भाई-बहनों की क्या ऊंचाई रही होगी तब। हम इन नादों में छिपकर तब की ताज़ा कहानी अली बाबा और चालीस चोर का नाटक खेल डालते थे।

कभी-कभी मन्ना हमें बदरी चाचा (श्री बदरीविशाल पित्ती) के घर ले जाते। घर क्या विशाल महल था। शतरंज के दो बित्ते के बोर्ड पर सफेद-काले रंग का जो सुंदर मेल हमने कभी अपने घर में देखा, वह

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