का, उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसी करनी है-बहुत ही बड़े माने गए ऐसे प्रश्न हमारे कवि पिता ने कभी सोचे नहीं होंगे। जब एक शाम मैं और नंदी स्कूल से घर लौटे थे तो मन्ना ने हमें बताया कि अगले दिन हम सब बंबई से बेमेतरा जाएंगे। बड़े भैया के पास। मन्ना के बड़े भैया म.प्र. के दुर्ग जिले की एक छोटी सी तहसील बेमेतरा में तब तहसीलदार थे। हम सब बेमेतरा जा पहुंचे। दो-चार दिन बाद पता चला कि मन्ना और अम्मा वापस बंबई लौट रहे हैं और अब हम यहीं बेमेतरा में बड़े भैया के पास रह कर पढ़ेंगे। हैदराबाद में एक बार सीढ़ियों से गिरने पर काफ़ी चोट लगने से मैं खूब रोया था। तब के बाद अब की याद है-बेमेतरा में खूब रोया, उनके साथ वापस बंबई लौटने को। आंखें तो उनकी भी गीली हुई थीं पर हम वहीं रह गए, मन्ना-अम्मा लौट गए। ताऊजी यानी बड़े भैया का प्यार मन्ना से बड़ा ही निकला। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि बड़े पिताजी के छह में से पांच बेटे बड़े होकर कॉलेज हॉस्टल आदि में चले गए थे और उन्हें अपना घर सूना लगने लगा था, इसलिए उस सूने घर में रौनक लाने के लिए मंझले भाई मन्ना ने हम दोनों को उन्हें सौंप दिया था।
बंबई से मन्ना दिल्ली आकाशवाणी आ गए। तब हम भी एक गर्मी में बेमेतरा से शायद चौथी/पांचवीं की पढ़ाई पूरी कर दिल्ली बुला लिए गए। हैदराबाद, बंबई की यादें धुंधली-सी ही थीं। बेमेतरा छोटा कस्बा था और बड़े भैया सरकार के बड़े अधिकारी थे, इसलिए बाज़ार आना-जाना, खरीददारी, डबलरोटी-ऐसे विचित्र अनुभवों से हम गुजरे नहीं थे। दिल्ली आने पर मन्ना के साथ घूमने-खुद चीजें खरीदने के अनुभव भी जुड़े। एक साधारण ठीक माने गए स्कूल रामजस में उन्होंने मुझे भर्ती किया। सातर्वी-आठवीं-नौंवी में विज्ञान में नंबर थे। इसी बीच उन्हें सरकारी मकान किसी और मोहल्ले में मिल गया। शुभचिंतकों के समझाने पर भी मन्ना
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