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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२६४

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मन्ना: वे गीत फ़रोश भी थे


ने मेरा स्कूल फिर बदल दिया-नए मोहल्ले सरोजनी नगर में टेंट में चलने वाले एक छोटे से सरकारी स्कूल में। यह घर के ठीक पीछे था। पैदल दूरी। 'बच्चा नाहक दिल्ली की ठंड/गर्मी में 8-10 मील दूर के स्कूल में बसों में भागता फिरे' यह उन्हें पसंद नहीं था। यहां विज्ञान भी नहीं कला की कक्षा में बैठा। मुझे खुद भी तब पता नहीं था कि विज्ञान मिलने न मिलने से जीवन में क्या खोते हैं-क्या पाते हैं। यहीं नौंवी में हिंदी पढ़ाते समय जब किसी एक सहपाठी ने हमारे हिंदी के शिक्षक को बताया कि मैं भवानीप्रसाद मिश्र का बेटा हूं तो उन्होंने उसे 'झूठ बोलते हो' कह दिया था। उस टेंट वाले स्कूल में ऐसे कवि का बेटा? बाद में उन्होंने मुझसे भी लगभग उसी तेज़ आवाज़ में पिता का नाम पूछा था। फिर हल्की आवाज़ में घर का पता पूछा था। फिर किसी शाम वे घर भी आए अपनी कविताएं भी मन्ना को सुनाईं। मन्ना ने भी कुछ सुनाया था। मन्ना की प्रसिद्धि हमें इन्हीं मापदंडों, प्रसंगों से जानने को मिली थी।

श्री मोहनलाल बाजपेयी यानी लालजी कक्कू मन्ना के पुराने मित्र थे। मन्ना ने उनके नाम एक पूरी पत्रनुमा कविता लिखी थी। बड़ा भव्य व्यक्तित्व। शांति निकेतन में हिंदी पढ़ाते थे। शायद सन् 1957 में वे रोम विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना करने बुलाए गए थे। वहां से जब वे दिल्ली आए एक बार तो एक बहुत ही सुंदर छोटा-सा टेपरिकॉर्डर लाए थे मन्ना के लिए। नाम था जैलेसो। जैलेसो यानी ईर्ष्या । उसमें छोटे स्पूल लगते थे। उन दिनों कैसेट वाले टेप चले नहीं थे। शहर का न सही शायद मोहल्ले का तो यह पहला टेपरिकॉर्डर रहा ही होगा! इसका हमारे मन पर बहुत गहरा असर पड़ा था। विज्ञान के आगे मैंने तो माथा ही टेक दिया था। क्या गज़ब की मशीन थी! हर किसी की आवाज़ कैद कर ले, फिर उसे ज्यों का त्यों वापस सुना दें। शायद लालजी कक्कू ने यह यंत्र इसलिए दिया था कि मन्ना इस पर कभी-कभी अपना

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