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अनुपम मिश्र
वग़ैरह लोग मांगने लगे थे। तब मन्ना इन वक्तव्यों में कहीं-कहीं कुछ कटु भी हुए थे। एक बार मैं चाय देने उनके कमरे में गया था तो सुना वे किसी से कह रहे थे, 'मूर्ति तो समाज में साहित्यकार की ही खड़ी होती है, आलोचक की नहीं!'
हम उनके स्नेह की उंगली पकड़ कर पले-बढ़े थे। इसलिए ऐसे प्रसंग में हमें उन्हीं की सीख से ख़ासी कड़वाहट दिखी थी। पर उन्हें एक दौर में गांधी का कवि तक तो ठीक, बनिए का कवि भी कहा गया तो ऐसे अप्रिय प्रसंग उनके संग जुड़ ही गए एकाध। फिर उनकी एक कविता में उन्होंने लिखा है कि 'दूध किसी का धोबी नहीं है। किसी की भी जिंदगी दूध की धोई नहीं है। आदमक़द कोई नहीं है।' कवि के नाते उनका क़द क्या था-यह तो उनके पाठक, आलोचक ही जानें। हम बच्चों के लिए तो वे एक ठीक आदमक़द पिता थे। उनकी स्नेह भरी उंगली हमें आज भी गिरने से बचाती है।
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