पार करानी थी नहर को, जिसमें नदी से ज़्यादा पानी गंगा का निकाल कर ले जाना था। आज हम अंग्रेज़ी में जिसे अक्वाडक कहते हैं वह भी बनाना था। तब मैं फिर आपके सामने एक और बात रख दूं कि बिजली भी उस समय देश में कहीं नहीं थी। अभी भी कई जगह बिजली नहीं है यानी कई शहरों में आती है और जाती है। लेकिन तब तो आई ही नहीं थी देश में बिजली, और सीमेंट जैसी कोई चीज़ नहीं थी। गारा-चूना था जिसको आज हम ट्रेडीशनल बिल्डिंग मैटीरियल कहकर उड़ा देते हैं। उससे यह नहर बनने वाली थी पूरी-की-पूरी और इस नहर को एक नदी भी पार करनी थी, वो अक्वाडक भी उन लोगों ने डिज़ाइन की। वह नहर चालू हुई। 200 साल आज हो रहे हैं उसको, उससे भी ज़्यादा, वह बराबर चलती रही है और उसमें कोई ख़राबी नहीं आई। उस नहर के कारीगरों को देखकर इस अंग्रेज़ सहृदय अधिकारी ने फिर से इस ईस्ट इंडिया कंपनी को कहा कि एक छोटा-सा इंजीनियरिंग कॉलेज ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को और चमकाने के लिए क्यों नहीं बनाते। यहां पर तब तक भारत में कहीं कोई इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं खुला था। इन अनपढ़ लोगों की देन थी उनका ये चमत्कार था कि अंग्रेज़ अधिकारी जो लूटने आया था उसको एक इंजीनियरिंग कॉलेज खोल कर देना पड़ा। और पुराना इतिहास अगर देखें तो पता चलता है तब तक भारत के अलावा एशिया में कोई ऐसा कॉलेज नहीं था। जिन देशों ने कोरिया ने, जापान ने इतनी तरक्की की है, वहां भी ऐसा कालेज नहीं था। तब हमारे यहां पहली बार यह कॉलेज खुला था, अनपढ़ लोगों की देन थी, उसके अलावा ऐसा भी कहा जाता है कि तब यूरोप में भी ऐसा कोई कॉलेज नहीं था। लेकिन सौभाग्य से ही कहना चाहिए कि इस कॉलेज का तो दर्भाग्य रहा लेकिन देश के सौभाग्य के लिए वहां पर 10 साल बाद गदर हो गया। 1847 के बाद 57। जो उदार 2-4 इने-गिने अधिकारी इस तरह
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