फिर से आधार बनाकर उन्होंने ग्राम सेवा और ग्राम विकास के पिछले छूटे हुए कामों को उठाना शुरू किया। 1984 में भी ऐसे कुछ काम शुरू कर के ही वे गांव से बाहर गए थे। इन कामों को करने के लिए कोई पैसा या बजट नहीं था। सार्वजनिक काम की कोई विशेष समझ भी तब नहीं रही होगी। जो काम लोगों ने तब करने बंद कर दिए थे, उन्हीं को धीरे-धीरे फिर से शुरू करने का वातावरण बनाना था। इसमें गांव के पशुओं की सेवा के लिए पीने का पानी जुटाना, खेती करना भी शामिल था। कभी वे गांव के उपेक्षित चौक से सफ़ाई शुरू करते, तो कभी पूरे दिन गांव के इस कोने से उस कोने तक बगरा हुआ गोबर उठाते और फिर उसे रात को खेतों में डालते, कचरे को खाद में बदलते थे। इस काम में उनके मित्र श्री रामअवतार कुमावत भी साथ थे। ये दोनों युवक रोज़ गांव के फूट चुके बड़े तालाब को देखते, लेकिन इसे ठीक कैसे करना है, यह उनकी समझ और क्षमता से बाहर की बात लगती।
लेकिन फिर 1982 में एक दिन अचानक इन दोनों ने अपने कुदाल फावड़े उठाए और लग गए बड़े तालाब को ठीक करने। कितने बरस लगते उसे ठीक करने में, यह उन्हें नहीं मालूम था। लोगों ने उन्हें रोका और समझाने की कोशिश की कि इस तरीके से कुछ होने नहीं वाला। लेकिन तभी गांव के प्रतिष्ठित पुजारी स्वामी सियाराम जी भी धरती की इस पूजा में शामिल हुए। फिर श्री श्योकरण बैरवा भी साथ हो गए। चारों लोग मिलकर दिन भर मिट्टी खोदते और एक-दो पीढ़ी से टूटे पड़े तालाब की पाल पर एक-एक टोकरी मिट्टी डालकर धीरे-धीरे पाल ऊपर उठाने लगे। फिर कुछ दिन बाद इनकी मेहनत और धीरज देखकर लापोड़िया के 15-20 और लोग भी साथ हो गए। एक से दो और अब दो से बीस लोगों के हाथ लगे तो पहली बार इन सबने अपना दिमाग
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