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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया


भी लगाया। एक बैठक हुई और इसमें तय किया गया कि यह गांव का काम है, तो पूरे गांव को बुलाना चाहिए।

गांव के घरों को ज़िम्मेदारी बांटी गई। सब मिलकर सबका काम करें-ऐसी कड़ी जो टूट गई थी, अब फिर से जुड़ गई थी। गर्मी के दो महीनों में सबने मिलकर बड़े तालाब की टूटी पाल को सुधारा। लेकिन प्रकृति शायद अभी लापोड़िया की परीक्षा लेना चाहती थी।

पहली बरसात में ही तालाब फिर टूट गया। लेकिन लापोड़िया में वर्षों बाद उभर रहे संगठन ने धीरज नहीं खोया। लाउडस्पीकर से आवाज़ देकर पूरे गांव को इकट्ठा किया और मिट्टी से भरी बोरियां डालकर टूटी हुई पाल को किसी तरह संभाल लिया। आने वाले वर्षों में तरुण भारत संघ ने इस बड़े तालाब को ठीक करने में मदद दी। और तब दस वर्ष की तपस्या के बाद लापोड़िया को बड़े तालाब का फिर से वरदान मिला। तालाब में इतना पानी रुका कि उसके नीचे के खेतों से धीरे-धीरे बहुत से परिवारों को सुधरती खेती से कुछ कहने लायक लाभ भी मिलने लगा। उस समय गांव के 100 बीघा, 100 बीगोड़ी में सिंचाई उपलब्ध होने लगी थी।

इसी बीच लक्ष्मण जी ने गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित 'आज भी खरे हैं तालाब' पुस्तक पढ़ी। इसे उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी पढ़ाया। सभी को लगा कि इसमें जिन परंपराओं का वर्णन है, वे उनकी अपनी परंपराएं रही हैं। इसलिए उन छूटे हुए छोरों को फिर से अपने गांव में मजबूती से अपनाना चाहिए।

बड़े तालाब को सुधारने के बाद फिर गांव में उससे पहले बने दो छोटे तालाबों को भी सुधारने का काम हाथ में लिया। तीनों तालाबों ने यहां होने वाली वर्षा को अपने ख़ज़ाने में भरना शुरू किया और फिर उसे गांव के कुओं के माध्यम से साल भर तक उपयोग में लाने का रास्ता खोला।

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