लिए बनी खाई को पाटकर अपने पशु घुसा दिए थे। सामाजिक इंजीनियरिंग की इन कमियों को फ़िलहाल भूल भी जाएं तो यहां तकनीकी रूप से जो काम किया था, उसे खुद प्रकृति भी याद नहीं रखना चाहती थी। पैसा खूब था, इसलिए सारा काम धीरज और हाथ के बदले ट्रैक्टर से किया गया था। डेढ़ फुट की ऊंचाई के कंटूर ट्रैक्टर के काम के कारण भीतर से पोले थे। पहली बरसात में ही ये पानी के दाब से दबकर 6 इंच के हो गए और फिर तेज़ बहता पानी इनको तोड़कर गोचर विकास का सारा काम अपने साथ बहाकर ले गया था।
इसी तरह के एक और काम में गोचर में ट्रेंच या खाई बनाकर नमी लाने का प्रयत्न किया गया था। यहां भी सफलता हाथ नहीं आई। इसका कारण यह समझ में आया कि बरसात के दौरान खाई में पूरा पानी भर जाता है। ऐसे में उसमें घास नहीं पनप पाती। फिर गर्मी के दिनों में यह पानी तेज़ी से उड़ने लगता है और खाई की गहराई से जुड़ी भूमि की परतों में समाई जा चुकी नमी भी इस तेज़ तापमान के दौरान वापस तेज़ी से सूखने लगती है। यह प्रयोग यदि सफल भी होता, तो लापोड़िया को उसमें कुछ अन्य कमियां भी दिखी थीं। इस काम के लिए काफ़ी समय तक गोचर को बंद करके रखना पड़ता। फिर जो कंटूर बनाए गए थे वे गोचर से आसपास के गांवों से निकलने वाले रास्तों के बीच आते थे। अपना गांव इस रुकावट को स्वीकार भी कर लेता तो दूसरे गांव वाले भला उसे क्यों मानते? फिर कुछ समय के लिए गोचर बंद करते तो गांव के पशु कहां जाते?
ऐसे बहुत से प्रश्नों का उत्तर न बैठकों में मिला और न आसपास देखे गए कामों से मिला। लेकिन लापोड़िया के लोग उजड़े पड़े गोचर के चक्कर लगाते रहे। ऐसे ही किसी चक्कर में श्री लक्ष्मण सिंह को सूझा
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