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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया


गोचर में भी आ जमा था। इसमें कोई शक नहीं कि यह जल्दी बढ़ता है, लेकिन कोई भी पशु इसे खाता नहीं है। फिर इसके आसपास कोई दूसरा उपयोगी पौधा भी नहीं पनप पाता। हर मौसम में इसकी फलियां चारों तरफ़ बिखरती हैं, और विलायती बबूल का साम्राज्य बढ़ता जाता है और पूरे गोचर को अपना गुलाम बना लेता है। इसलिए इस सामूहिक भोज के बाद विलायती बबूल को पूरे गोचर से हटाने का सुंदर देसी अभियान भी प्रारंभ हुआ।

गांव के लोगों ने पूरे गोचर में घूम कर विलायती बबूल की गिनती की। फिर उस गिनती को गांव के कुल परिवारों में बांटा। कोई छह सौ पेड़-पौधे विलायती बबूल के थे और गांव में 200 परिवार थे। तय किया गया कि प्रति परिवार तीन विलायती बबूल जड़ समेत उखाड़ना है। इस पेड़-झाड़ी का ज़रा-सा हिस्सा भी छूट जाए तो इसे फिर से बढ़ने में देर नहीं लगती। इसलिए बिना देरी किए अगले छह महीने में गोचर से इसे हटाना तय हुआ। जड़ समेत खोदने के बाद जो गड्ढे निकले, उनमें इन्हीं परिवारों ने देसी बबूल, बेर, तरह-तरह की उपयोगी घास के बीजों का रोपण किया।

शुरू के दिनों में चौका बनाने के बाद उत्साह में बाहर से पौधे और तरह-तरह की घास के बीज लाकर लगाए गए। लेकिन इनके परिणाम बहुत अच्छे नहीं निकले। गोचर में जितना ज़रूरी था उतना पानी रोका गया था। बाक़ी अतिरिक्त पानी चौकों को बिना तोड़े आगे बहता रहा था। इसलिए भले ही बाहर से लाकर बोए गए बीज अंकुरित नहीं हुए, लेकिन बिना बोए बीजों ने तर हुई गोचर की भूमि में अपना सिर उठाकर इसे हरा-भरा करना शुरू कर दिया। वर्षा के दिनों में पूरे गोचर में जैसे पानी चलता, उसके सूखते ही नमी वाली उस जगह पर प्रकृति तरह-तरह की

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