वातावरण बनाया जाना था। इसलिए इन झाड़ियों की रखवाली के लिए क़ानून या सख्ती के बदले प्रेम और श्रद्धा का सहारा लिया गया। लापोड़िया गांव के स्त्री-पुरुषों ने इन छोटी-छोटी झाड़ियों को राखी बांधी और इनकी रक्षा का वचन लिया। शायद इन झाड़ियों ने भी मन-ही-मन लापोड़िया की रक्षा करने का संकल्प ले लिया था।
तभी तो आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया में इतना चारा है, इतना हरा चारा है, पशु इतने प्रसन्न हैं कि यहां अकाल के बीच में भी दूध की बड़ी न सही, लेकिन एक छोटी नदी तो बह ही रही है। आज लापोड़िया में प्रतिदिन 40 केन यानी कोई 1600 लीटर दूध हो रहा है। घर परिवार और बच्चों की ज़रूरतें पूरी करने के बाद ही दूध की बिक्री की जाती है। जयपुर डेयरी यहां से हर महीने ढाई लाख रुपए का दूध ख़रीद रही है। इस तरह आज लापोड़िया हर वर्ष लगभग 30 लाख रुपए का दूध पैदा कर रहा है। और यह दूध गांव में लौटी हरियाली से है।
उजड़े हुए गोचर में आज चौका पद्धति के कारण न जाने कितनी तरह की घास और तरह-तरह के पौधे वापस आए हैं। इन सबकी गोचर में अपनी-अपनी विशेष जगह तय हो रही है। ऐसा लगता है कि प्रकृति इनके स्थान का आरक्षण करती चल रही है। कहीं पसरकटेली है, तो कहीं ऊंटकटेला, कहीं ख़रगोश चूंटी है, तो कहीं गंदेल और लापणा तो कहीं झेरणा। अब गोचर में लोग प्रवेश करते हैं तो उत्सुकता के साथ निकल रही हर कोंपल को, पत्ती को, अंकुर को पहचानने की, नाम बताने की या नाम पूछने की कोशिश करते हैं। लापोड़िया का गोचर वनस्पति शास्त्र की एक नई पाठशाला बन गया है। आपस की बातचीत में किसान, पशुपालक और ग्वालों की टोली में नए नामों को पहचानने और खोजने
23