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अनुपम मिश्र


की होड़-सी लग गई है। कोई बताएगा कि इस घास का क्या नाम है, तो कोई उसके गुण और लाभ सामने रखेगा, तो कोई सबके आगे बढ़कर उस घास के स्वभाव का ऐसा वर्णन करेगा-जैसे वह उसके परिवार का सदस्य हो-'गांठ-गठीली घास कूदते चलती है।' यहां अब पुरानी क़िस्मों के इतने सारे नाम इकट्ठा हो गए हैं कि नए ज़माने के नाम जैसे स्टाइलो, धामन और रिजका पीछे छूट जाते हैं।

घास के साथ-साथ फिर लापोड़िया गांव का ध्यान गोचर और गांव में पेड़ों पर गया है। पूरे गांव ने मिलकर गोचर से विलायती बबूल हटा दिया था। अब प्रकृति को थोड़ी राहत मिली थी, इसीलिए गोचर में नमी पाते ही देसी बबूल, रौंझ, खेजड़ी, कैर, जाल, जहां जो संभव हुआ धीरे-धीरे पनपने लगा। प्रकृति में तेजी से बढ़ने वाले पेड़ों की कोई ख़ास जगह नहीं होती। यह धीरज का काम है। इसीलिए लापोड़िया गांव ने अपना धीरज नहीं खोया और जो पेड़ आने लगे थे, उन्हें बचाने और बढ़ने का अवसर देने का वातावरण बनाया। लेकिन इसके लिए पशुओं को रोका नहीं। गांव ने माना कि पशु इस व्यवस्था में शत्रु नहीं हैं। वे मित्र हैं और उनकी मित्रता गोचर को हरा-भरा बनाती है। गाय का गोबर, बकरी और ख़रगोश की मेंगनी अपने में तरह-तरह की घास और पेड़ों के बीज लिए रहती है। पशु-पक्षी के पेट की रासायनिक क्रिया इनके कठोर कवच को नरम बनाती है और मेंगनी आदि के रूप में इन बीजों के आसपास खाद बांधती है। पूरे गोचर में बिखरी मेंगनी चौके में पानी भरने, बहने और फिर यहां-वहां आने-जाने के कारण अपने-अपने भार को देखते हुए तैरती हैं और उचित मौक़ा देखकर ठहर जाती हैं। फिर नमी और धूप इनके अंकुरण में सहायक बनती है।

लापोड़िया में गोचर विकास के इन प्रारंभिक कामों के साथ-साथ लोगों का ध्यान गोचर की पूरी व्यवस्था की ओर भी जाने लगा है। गांव

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