पिछले दौर में जिस परंपरा को, जिस ज्ञान को और जिस अनुशासन को खो बैठा था, भुला बैठा था, अब उसका थोड़ा-सा अंश जब वापस आने लगा, तो उसके संपूर्ण रूप, संपूर्ण दर्शन की स्मृति भी लौटने लगी है।
आज लापोड़िया में पशुओं की संख्या बढ़ी है। पक्षियों की संख्या भी बढ़ी है और उनकी जातियां भी। इसी तरह वन्य जीवों की भी उपस्थिति दिखने लगी है। मोर, कोयल, पपीहा, खरगोश, नेवला, जंगली बिल्ली, गिलहरी, झामूसा और तरह-तरह के मित्र कीट-पतंगे खेतों और गोचर में सहज मिलने-दिखने लगे हैं। गांव में मकानों पर, दीवारों पर पशुपक्षियों के जो चित्र बनाए जाते थे, आज वे दीवारों से उतर कर गांव में फैल गए हैं।
गांव में अब बेगसा की बात होती है। बेगसा यानी गांव और गोचर के बीच पशुओं के बैठने की, एकत्र होने की या आराम करने की जगह। कुछ क्षेत्रों में बेगसा को गोठान भी कहा जाता है, जो संस्कृत शब्द 'गोस्थान' से बना है। राजस्थान के इन क्षेत्रों में वर्षा कम ही होती है, इसलिए परंपरा से यहां के किसान खेती के साथ-साथ पशुपालन पर पूरा ध्यान देते रहे हैं। पशु उनके लिए सिर्फ कमाई का साधन नहीं थे। ये उनके सांस्कृतिक और दार्शनिक समाज के जीवंत सदस्य थे। इसलिए इन्हें यहां से वहां हांक कर नहीं ले जाना है। उसकी पूरी व्यवस्था बनाई गई थी। 'बेगसा' इसी बड़ी व्यवस्था का एक छोटा-सा अंग था।
प्रायः हर घर में पशु होते थे, लेकिन उस घर के सदस्य पशुओं के साथ खुद गोचर नहीं जा पाते थे। इस ज़िम्मेदारी को गांव के ग्वाले निभाते थे। हर मोहल्ले और टोले से गोचर में जाने वाले पशुओं का झुंड धीरे-धीरे निकलता। किसी गली से पांच-दस पशु निकलते तो कहीं से बीस-तीस। ये सब गांव से गोचर के रास्ते में गांव के पास बने 'बेगसा' में बिठा दिए
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