जाते। फिर जब ग्वाले अपने-अपने पशुओं के साथ आ जाते, तो फिर सब एक साथ गोचर की तरफ़ बढ़ते।
लेकिन आज जब गांवों में गोचर ही नहीं बचा है, तो किस गांव में बेगसा या गोठान मिल पाएगा? कभी लापोड़िया में बेगसा पैंतीस बीघा में थी, लेकिन फिर धीरे-धीरे गोचर उजड़ा और फिर उसी के साथ बेगसा भी। पुरानी पीढ़ियों ने गांव के पास ही इतनी बड़ी जगह पशु समाज के आराम के लिए छोड़ी थी। लेकिन नई पीढ़ियों को यह कीमती जगह की बर्बादी लगी होगी। इसलिए इस पर भी कब्जे होते गए। आज जिन पंचायतों के हाथ में गांव के विकास की ज़िम्मेदारी है, वहां का नेतृत्व इस क़ीमती जगह को गुमटी, दुकान या हाट-बाज़ार में बदलने के लिए आतुर है। लेकिन लापोड़िया फिर से 'बेगसा' को भी बचाने का मन बना रहा है।
इस पूरी व्यवस्था के विस्तार में जाएं, तो समझ में आएगा कि गांव का हमारा किसान-समाज कितना संगठित था। कहीं-कहीं गांव से गोचर का रास्ता बिल्कुल अलग रखा जाता था। यह लोगों के पैदल चलने या बैलगाड़ी चलाने वाले रास्तों से दूर रहता था। ऐसे रास्तों को कांकड की गैली कहा जाता था। ग्वालों का पारिश्रमिक पशुओं की गिनती के अनुसार प्रायः अनाज में और कभी-कभी पैसे के रूप में भी मिलता था। इस बंधी आमदनी के अलावा साल भर आने वाले तीज-त्योहारों पर किसान परिवार ग्वालों को कपड़ा, छाता, जूते, अपनी-अपनी हैसियत से देते थे। दीपावली पर ग्वालों के नाच का विशेष महत्व था। लक्ष्मी पूजन आज सबको मालूम है, लेकिन उसी दिन गो-पूजन भी होता था। गोधन से ही लक्ष्मी आती थी। दीपावली की सुबह पूरे गांव को जगाने का काम सुरीले गीत गाकर ग्वाले ही करते थे। गांव में इसी दिन या कहीं-कहीं दशहरे के दिन बैलों को सजाया जाता, उनकी दौड़ होती ओर कहीं-कहीं बैलों की लड़ाई भी।
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