आज जब गोचर की तरफ़ फिर से ध्यान जा रहा है, तब इस बात को भी याद दिलाना चाहिए कि हमारे ग्रामीण समाज ने अपने पशुओं की देखरेख के लिए एक सुविचारित ढांचा खड़ा किया था। गोचर उसका एक हिस्सा था।
लापोड़िया का ही इतिहास देखें तो पता चलता है कि यहां लगभग 320 बीघे में गोचर के अलावा इसी से मिलते-जुलते काम के लिए एक छोटा बीड़, एक बड़ा बीड़ और चौइली नामक स्थान सुरक्षित रखा गया था। गोचर में गाय और अन्य छोटे पशु चरने के लिए भेजे जाते थे। वहां के चारे का आकार-प्रकार और गुण ऐसे ही पशुओं के शरीर की काठी और उनकी भूमिका के हिसाब से तय किए जाते थे। लेकिन बीड़ में ज़्यादा बड़ा और पौष्टिक चारा होता था और इन सब स्थानों का वर्ष भर का ऋतु चक्र या कैलेंडर बना रहता था।
बरसात होते ही पूरे गांव के बैल चौइली में भेजे जाते थे। यहां प्राकृतिक चारा उपलब्ध होता था। पचास बीघे की इस चौइली में किसी एक परिवार के नहीं, ज़मींदार या ठिकानेदार परिवार के नहीं बल्कि गांव के सभी परिवारों के बैल छोड़े जाते थे। बरसात में उठा यह चारा दीपावली तक थोड़ा कमज़ोर हो जाता था। उसके बाद चौइली के बैल बीड़ में भेजे जाते और बैलों से खाली हुई चौइली में अब गाय और बकरी की बारी आती। चौइली में चराई पूरी तरह से निःशुल्क थी, लेकिन बीड़ में प्रतीक रूप में, नाम मात्र का शुल्क लिया जाता था और यह राज में जमा होता था। इस तरह जमा की गई यह राशि इन्हीं स्थानों की देखरेख के मद में खर्च की जाती थी। होली के बाद गर्मी का मौसम आने लगता और तब इन इलाकों से चारा काटकर कटी हुई जगह में भी पशुओं को रखा जाता था। इस दौरान लोग अपने-अपने खेतों में
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