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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया


भी कुछ चारा लगाकर रखते थे। इस भंडार का उपयोग होता। फिर जुलाई से दीपावली तक गायें गोचर में आ जातीं।

इस पूरी व्यवस्था में हर स्थान को पूरा आराम देने का विशेष ख्याल रखा जाता था। समय का बंटवारा इस तरह से किया जाता कि खुली चराई से पहले उस स्थान विशेष में लगी घास या चारा ठीक से पनप जाए, उसमें फूल और फल यानी बीज आ जाएं, नए बीज फिर से गिर जाएं जड़ें जम जाएं ताकि आज उसके उपयोग के बाद कल उसकी दूसरी फ़सल अपने आप आ जाए। इन सभी स्थानों के ऋतु चक्र के अनुसार अलग-अलग प्रजाति की घास और चारा सुरक्षित रखा जाता था। गर्मी की दोब गर्मी में ही फैलती है। लेकिन बरसात में यह नहीं फूटती। सावां घाम नामक चारा बरसात के अच्छे पानी में भी खड़ा रहेगा।

गांव की परंपरा में निजी संपत्ति और सार्वजनिक संपत्ति का बहुत बारीक विभाजन किया गया था। सार्वजनिक संपत्ति के लिए गांव में चलने वाला शब्द 'शामलात-देह' है। यह फ़ारसी शब्द शामिल और देहात से मिलकर बना है। अर्थ स्पष्ट है-जिसमें पूरा गांव हो। शाब्दिक अर्थ के अलावा इसमें यह भावना भी छिपी रहती थी कि इसमें सारा गांव सेवक की तरह काम करेगा।

स्वामी और सेवक की भूमिका में किसी तरह की चूक न हो, इसलिए बहुत व्यवस्थित नियम बनाए गए थे। लेकिन इन नियमों पर पहरा देती थी श्रद्धा। दंड का भी विधान ज़रूर था। लेकिन शामलात-देह की रखवाली श्रद्धा पर टिकी थी। इसका बहुत सुंदर उदाहरण है कुराड नामक गांव।

कुण्ड गांव में आज भी पुरानी परंपरा के हिसाब से एक बड़े गोचर की रखवाली हो रही है। इसमें न खाई है, न कटीले तार हैं और न किसी विभाग के चौकीदार। लेकिन लंबे-चौड़े गोचर में एक भी पत्ती, एक भी

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