टहनी की चोरी नहीं होती। समय-समय पर गोचर और ओरण की सीमा पर 'कार' लगाई जाती है। 'कार' मंत्रों और पूजा से पवित्र किए गए दूध, गोमूत्र और गंगाजल का मिश्रण होता है। इसे एक ऐसे धातु के पात्र में, घड़े में डाला जाता है जिसमें नीचे एक छोटा-सा छेद होता है। पात्र का मुंह दो तरफ़ झूलने वाली रस्सी से बांध कर दो लोग इसे उठाते हैं और तेज़ी से चलते हैं। इस तरह गोचर की पूरी सीमा पर 'कार' से रेखा खींची जाती है। पीछे पूरा गांव चलता है। मिट्टी में गिरने वाली दूध और गंगाजल की यह बारीक रेखा कुछ ही क्षणों बाद सूख जाती है लेकिन पूरे गांव के मन पर यह अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है। 'कार' लगने के बाद सब लोग ज़मीन से मिट चुकी लेकिन मन में खिंच गई उस अमिट रेखा का पालन करते हैं। कुण्ड में आज सूखा और गिरा पड़ा पेड़ भी कोई बाहर नहीं लाता, पेड़ काटने की तो बात ही छोड़िए। लेकिन कुण्ड जैसे उदाहरण आसपास के अन्य गांव में अब नहीं दिखते। एक समय रहा होगा, जब इस तरह के काम कई गांव में रहे होंगे। शायद सभी गांवों में।
कोई भी अच्छा काम सूख चुके समाज में आशा की थोड़ी नमी बिखेरता है और फिर नई जड़ें जमती हैं, नई कोपलें फूटती हैं। ग्राम विकास नवयुवक मंडल लापोड़िया के प्रयासों से गोचर को सुधारने का यह काम अब धीरे-धीरे आसपास के गांवों में भी फैल चला है। गागरडू, डोरिया, सीतापुर, नगर, सहल सागर, महत्त गांव, गणेशपुरा आदि अनेक गांवों में आज चौका पद्धति से गोचर को सुधारने का काम बढ़ रहा है। सब जगह ऐसे काम की ज़रूरत है, लेकिन ऐसे काम के पीछे जैसा संगठन, जैसा धीरज चाहिए यदि वैसा न हो तो यह काम खड़ा नहीं हो पाता। आज कोई अस्सी गांवों में यह काम बढ़ रहा है। इनमें से कोई पंद्रह गांवों में यह काफ़ी आगे जा सका है।
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